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चार पक्के घाटों का चौपड़ा

प्राकृतिक रूप से निचली जमीन में पानी जमा हो जाता है। ढोर-डंगरों के साथ आते-जाते ऐसे तालाब अनायास ही मिल जाते हैं। उस रास्ते में प्राय: आने-जाने वाले लोग ऐसे तालाबों को थोड़ा ठीक-ठाक कर लेते हैं और उनको उपयोग में लाने लगते हैं।

अमहा का एक अर्थ आम तो है ही। आम के पेड़ से, बड़ी-बड़ी अमराइयों से घिरे ताल अमहा तरिया, ताल या आमा तरिया कहलाते हैं। इसी तरह अमरोहा था। आज यह एक शहर का नाम है पर एक समय आम के पेड़ों से घिरे तालाब का नाम था। कहीं-कहीं ऐसे ताल अमराह भी कहलाते। फिर जैसे अमराह वैसे ही पिपराह—पूरी पाल पर पीपल के भव्य वृक्ष। अमराह, पिपराह में पाल पर या उसके नीचे लगे पेड़ चाहे कितने ही हों, वे गिने जा सकते हैं, पर लखपेड़ा ताल लाखों पेड़ों से घिरा रहता। यहां लाख का अर्थ अनगिनत से रहा है। कहीं-कहीं ऐसे तालाब को लखरांव भी कहा गया है।

लखरांव को भी पीछे छोड़े, ऐसा था भोपाल ताल। इसकी विशालता ने आस-पास रहने वालों के गर्व को कभी-कभी घमंड में बदल दिया था। कहावत में बस इसी को ताल माना: ताल तो भोपाल ताल बाकी सब तलैया! विशालतम ताल का संक्षिप्ततम विवरण भी चकित करता है। ११वीं सदी में राजा भोज द्वारा बनवाया गया यह ताल ३६५ नालों, नदियों से भरकर २५० वर्गमील में फैलता था। मालवा के सुलतान होशंगशाह ने १५वीं सदी में इसे सामरिक कारणों से तोड़ा। लेकिन यह काम उसके लिए युद्ध से कम नहीं निकला—और भोजताल तोड़ने के लिए होशंगशाह को फौज ही झोंकनी पड़ी। इतनी बड़ी फौज को भी इसे तोड़ने में ३ महीने लगे। फिर ३ बरस तक ताल का पानी बहता रहा, तब कहीं जाकर तल दिखाई दिया। पर इसके आगर का दलदल ३० साल तक बना रहा।

५२ आज भी खरे हैं तालाब