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इसमें किनारे पर वरुण देवता का एक स्तंभ है। स्तंभ की ऊंचाई के हिसाब से ही उससे कोई एक फलांग की दूरी पर श्याम सागर की अपरा है। बढ़ते जल स्तर ने वरुण देवता के पैर छुए नहीं कि अपरा चलने लगती है और तालाब में फिर उससे ज्यादा पानी भरता नहीं। वरुण देवता कभी डूबते नहीं।

स्तंभ तालाब के जल-स्तर को बताते थे पर तालाब की गहराई प्रायः 'पुरुष' नाप से नापी जाती थी। दोनों भुजाएं अगल-बगल पूरी फैला कर खड़े हुए पुरुष के एक हाथ से दूसरे हाथ तक की कुल लंबाई पुरुष या पुरुख कहलाती है। इंच फुट में यह कोई छह फुट बैठती है। ऐसे २० पुरुष गहराई का तालाब आदर्श माना जाता रहा है। तालाब बनाने वालों की इच्छा इसी 'बीसी' को छूना चाहती है। पर बनाने वालों के सामर्थ्य और आगौर-आगर की क्षमता के अनुसार यह गहराई कम-ज़्यादा होती रहती है।

प्रायः बीसी या उससे भी ज्य़ादा गहरे तालाबों में पाल पर तरंगों का वेग तोड़ने के लिए आगौर और आगर के बीच टापू छोड़े जाते रहे हैं। ऐसे तालाब बनाते समय गहरी खुदाई की सारी मिट्टी पाल पर चढ़ाने की ज़रूरत नहीं रहती। ऐसी स्थिति में उसे और भी दूर, यानी तालाब से बाहर लाकर फेंकना भी कठिन होता है। इसलिए बीसी जैसे गहरे तालाबों में तकनीकी और व्यावहारिक कारणों से तालाब के बीच टापू जैसे एक या एकाधिक स्थान छोड़ दिए जाते थे। इन पर खुदाई की अतिरिक्त मिट्टी भी डाल दी जाती थी। तकनीकी मज़बूती और व्यावहारिक सुविधा के अलावा लबालब भरे तालाब के बीच में उभरे ये टापू पूरे दृश्य को और भी मनोरम बनाते थे।

टापू, टिपूआ, टेकरी और द्वीप जैसे शब्द तो इस अंग के लिए मिलते ही हैं पर राजस्थान में तालाब के इस विशेष भाग को एक विशेष नाम दिया गया है—लाखेटा।

लाखेटा लहरों का वेग तो तोड़ता ही है, वह तालाब और समाज को जोड़ता भी है। जहां कहीं भी लाखेटा मिलते हैं, उन पर उस क्षेत्र के किसी सिद्ध संत, सती या स्मरण रखने योग्य व्यक्ति की स्मृति में सुंदर छतरी बनी मिलती है। लाखेटा बड़ा हुआ तो छतरी के साथ खेजड़ी और पीपल के पेड़ भी लगे मिलेंगे।

सबसे बड़ा लाखेटा? आज इस लाखेटा पर रेल का स्टेशन है, बस अड्डा है और एक प्रतिष्ठित माना गया औद्योगिक क्षेत्र भी बसा है, जिसमें हिन्दुस्तान इलैक्ट्रो ग्रेफाइट्स जैसे भीमकाय कारखाने लगे हैं। मध्य रेलवे

३७ आज भी खरे हैं तालाब