पृष्ठ:Aaj Bhi Khare Hain Talaab (Hindi).pdf/३९

यह पृष्ठ प्रमाणित है।

स्तंभ पत्थर के बनते थे और लकड़ी के भी। लकड़ी की जात ऐसी चुनते थे, जो मज़बूत हो, पानी में सड़े-गले नहीं। ऐसी लकड़ी का एक पुराना नाम क्षत्रिय काष्ठ था। प्राय: जामुन, साल, ताड़ तथा सरई की लकड़ी इस काम में लाई जाती रही है। इनमें साल की मज़बूती की कई कहावतें रही हैं जो आज भी डूबी नहीं हैं। साल के बारे में कहते हैं कि "हज़ार साल खड़ा, हज़ार साल पड़ा और हज़ार साल सड़ा।" छत्तीसगढ़ के कई पुराने तालाबों में आज भी साल के स्तंभ लगे मिल जाएंगे। रायपुर के पुरातत्व संग्रहालय में कहावत से बाहर निकल कर आया साल के पेड़ का सचमुच सैकड़ों साल से भी पुराना एक टुकड़ा रखा है। यह एक जल स्तंभ का अंश है, जो उसी क्षेत्र में चंद्रपुर अब ज़िला बिलासपुर के ग्राम किरानी में हीराबंध नामक तालाब से मिला है। हीराबंध दूसरी शताब्दी पूर्व के सातवाहनों के राज्य का है। इस पर राज्य अधिकारियों के नाम खुदे हैं जो संभवत: उस भव्य तालाब के भरने से जुड़े समारोह में उपस्थित थे।

परिस्थिति नहीं बदले तो लकड़ी ख़राब नहीं होती। स्तंभ हमेशा पानी में डूबे रहते थे, इसलिए वर्षों तक खराब नहीं होते थे।

स्तंभ तालाब के जल-स्तर को बताते थे।

पर तालाब की गहराई प्राय: पुरुष नाप से नापी जाती थी।
दोनों भुजाएं अगल-बगल पूरा फैला कर
खड़े हुए पुरुष के एक हाथ से दूसरे हाथ तक की
कुल लंबाई पुरुष या पुरुख कहलाती है

कहीं-कहीं पाल या घाट की एक पूरी दीवार पर अलग-अलग ऊंचाई पर तरह-तरह की मूर्तियां बनाई जाती थीं। ये प्राय: मुखाकृति होती थीं। सबसे नीचे घोड़ा तो सबसे ऊपर हाथी। तालाब का बढ़ता जलस्तर इन्हें क्रम से स्पर्श करता जाता था और सबको पता चलता जाता कि इस बार पानी कितना भर गया है। ऐसी शैली के अमर उदाहरण हैं जैसलमेर के अमर सागर की दीवार पर घोड़े हाथी और सिंह की मूर्तियां।

स्तंभ और नेष्टा को एक दूसरे से जोड़ देने पर तो चमत्कार ही हो जाता है। अलवर से कोई सौ किलोमीटर दूर अरावली की पहाड़ियों के ऊपर आबादी से काफ़ी दूर एक तालाब है श्याम सागर। यह संभवत: युद्ध के समय सेना की ज़रूरत पूरी करने के लिए १५वीं सदी में बनाया गया था।

३६ आज भी खरे हैं तालाब