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तरह से जमा दिए जाते हैं कि उनके बीच में से सिर्फ पानी निकले, मिट्टी और रेत आदि पीछे जम जाए, छूट जाए।

रेगिस्तानी क्षेत्र में रेत की मात्रा मैदानी क्षेत्रों से कहीं अधिक होती है। इसलिए वहां तालाब में खुरा अधिक व्यवस्थित, कच्चे के बदले पक्के भी बनते है। पत्थरों को गारे चुने से जमा कर बकायदा एक ऐसी दो मंजिली पुलिया बनाई जाती हैं, जिसमें से ऊपरी मंजिल की खिड़कीयों, या छेदों से पानी जाता है, उन छेदों के नीचे से एक नाली में आता है और वहां पानी सारा भार कंकर-रेत आदि छोड़कर साफ होकर फिर पहली मंजिल के छेदों से बाहर निकल आगौर की तरफ बढ़ता है। कई तरह के छोटे-बढ़े, ऊँचे-नीचे छेदों से पानी छानकर आगर में भेजने वाला यह ढांचा छेदी कहलाता है।

इस तरह रोकी गई मिट्टी के कोई भी कई नाम हैं। कहीं यह साद है, गाद है, लद्दी है, तो कहीं तलछट भी। पूरी सावधानी रखने के बाद भी हर वर्ष पानी के साथ कुछ न कुछ मिट्टी आगर में आ ही जाती है। उसे निकालने के भी अवसर और तरीके बहुत व्यवस्थित रहे हैं। उनका ब्यौरा बाद में। अभी फिर पाल पर चलें। पाल कहीं सीधी, कहीं अर्ध चंद्राकार, दूज के चांद की तरह बनती है तो कहीं उसमें हमारे हाथ की कोहनी की तरह एक मोड़ होता है। यह मोड़ कोहनी ही कहलाता है। जहां भी पाल पर आगौर से आने वाले पानी का बड़ा झटका लग सकता है, वहां पाल की मज़बूती बढ़ाने के लिए उस पर कोहनी दी जाती है।

जहां संभव है, सामर्थ्य है, वहां पाल और पानी के बीच पत्थर के पाट लगाए जाते हैं। पत्थर जोड़ने की क्रिया जुहाना कहलाती है। छोटे पत्थर गारे से जोड़े जाते थे और इस घोल में रेत, चूना, बेलफल (बेलपत्र) गुड़, गोंद और मेथी मिलाई जाती थी। कहीं-कहीं राल भी। बड़े वजनी