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अनपूछी ग्यारस को इतना तो हो ही जाता था। लेकिन किसी कारण उस दिन काम शुरु नहीं हो पाए तो फिर मुहूर्त पूछा जाता था, नहीं तो खुद निकाला जाता था। गांव और शहर में घर-घर में मिलने वाले पंचांग और कई बातों के साथ कुआं, बावड़ी और तालाब बनाने का मुहूर्त आज भी समझाते हैं: "हस्त, अनुराधा, तीनों उत्तरा, शतभिषा, मघा, रोहिणी, पुष्य, मृगशिरा, नक्षत्रों में चंद्रवार, बुधवार, बृहस्पतिवार तथा शुक्रवार को कार्य प्रारम्भ करें। परन्तु तिथि चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी का त्याग करें। शुभ लग्नों में गुरु और बुध बली हों, पाप ग्रह निर्बल हो, शुक्रवार का चन्द्रमा जलचर राशिगत लग्न अथवा चतुर्थ हो, गुरु, शुक्र अस्त न हो, भद्रा न हो तो खुदवाना शुभ है।"

आज हममें से ज़्यादा लोगों को इस विवरण में से दिनों के कुछ नाम भर समझ में आ पाएंगे, पर आज भी समाज के एक बड़े भाग के मन की घड़ी इसी घड़ी से मिलती है। कुछ पहले तक तो पूरा समाज इसी घड़ी से चलता था।

तालाब की डाट

...घड़ी साध ली गई है। लोग वापस लौट रहे हैं। अब एक दो दिन बाद जब भी सबको सुविधा होगी, फिर से काम शुरु होगा।

अभ्यस्त निगाहें इस बीच पलक नहीं झपकतीं। कितना बड़ा है तालाब, काम कितना है, कितने लोग लगेंगे, कितने औज़ार, कितने मन मिट्टी खुदेगी, पाल पर कैसे डलेगी मिट्टी? तसलों से, बहंगी, लग्गे से ढोई जाएगी या गधों की भी ज़रूरत पड़ेगी? प्रश्न लहरों की तरह उठते हैं। कितना काम कच्चा है, मिट्टी का है, कितना है पक्का, चूने का, पत्थर का। मिट्टी का कच्चा काम बिलकुल पक्का करना है और पत्थर, चूने का पक्का काम कच्चा न रह जाए। प्रश्नों की लहरें उठती हैं और अभ्यस्त मन की गहराई में शांत होती जाती हैं। सैंकड़ों मन मिट्टी का बेहद वज़नी काम है। बहते पानी को रुकने के लिए मनाना है। पानी से, हां आग से खेलना है।

डुगडुगी बजती है। गांव तालाब की जगह पर जमा होता है। तालाब पर काम अमानी में चलेगा। अमानी यानी सब लोग एक साथ काम पर आएंगे, एक साथ वापस घर लौटेंगे।

१२ आज भी खरे हैं तालाब