का चुनाव करते समय कई बातों का ध्यान रखा गया है। गोचर की तरफ है यह जगह। ढाल है, निचला क्षेत्र है। जहां से पानी आएगा, वहां की ज़मीन मुरुम वाली है। उस तरफ शौच आदि के लिए भी लोग नहीं जाते हैं। मरे जानवरों की खाल वगैरह निकालने की जगह यानी हड़वाड़ा भी इस तरफ नहीं है।
अभ्यास से अभ्यास बढ़ता है। अभ्यस्त आंखें बातचीत में सुनी-चुनी गई जगह को एक बार देख भी लेती हैं। यहां पहुंच कर आगौर, जहां से पानी आएगा, उसकी साफ-सफाई, सुरक्षा को पक्का कर लिया जाता है। आगर, जहां पानी आएगा, उसका स्वभाव परख लिया जाता है। पाल कितनी ऊंची होगी, कितनी चौड़ी होगी, कहां से कहां तक बंधेगी तथा तालाब में पानी पूरा भरने पर उसे बचाने के लिए कहां पर अपरा बनेगी, इसका भी अंदाज़ ले लिया गया है।
सब लोग इकट्ठे हो गए हैं। अब देर काहे की। चमचमाती थाली सजी है। सूरज की किरणें उसे और चमका रही हैं। जल से पूर्ण लोटा है। रोली, मौली, हल्दी, अक्षत के साथ रखा है लाल मिट्टी का एक पवित्र डला। भूमि और जल की स्तुति के श्लोक धीरे-धीरे लहरों में बदल रहे हैं।
जहां सदियों से तालाब बनते रहे हैं,
हजारों की संख्या में बने हैं-वहाँ तालाब बनाने का
पूरा विवरण न होना शुरू में अटपटा लग सकता है,
पर यही सबसे सहज स्थिति है। तालाब कैसे बनाए के बदले
चारों तरफ तलब ऐसे बनाए का चलन था।
वरुण देवता का स्मरण है। तालाब कहीं भी खुद रहा हो, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक की नदियों को पुकारा जा रहा है। श्लोकों की लहरें थमती हैं, मिट्टी में फावड़ों के टकराने की खड़खड़ाहट से। पांच लोग पांच परात मिट्टी खोदते हैं, दस हाथ परातों को उठाकर पाल पर डालते हैं। यहीं बंधेगी पाल। गुड़ बंट जाता है। महूरत साध लिया है। आंखों में बसा तालाब का पूरा चित्र फावड़े से निशान लगाकर ज़मीन पर उतार लिया गया है। कहां से मिट्टी निकलेगी और कहां-कहां डाली जाएगी, पाल से कितनी दूरी पर खुदाई होगी ताकि पाल के ठीक नीचे इतनी गहराई न हो जाए कि पाल पानी के दबाव से कमज़ोर होने लगे।...
आज भी खरे हैं तालाब