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बेहयाई का बोरका


हीराबाई ने जीतेजी बड़ौदे और देवगढ़ का ध्यान कभी अपने जी से नहीं भुलाया था और बराबर उन राज्यों की भलाई वह करती रहती थी यहां तक कि उसके कहने से अ़लाउद्दीन ने उन राज्यों से नज़राना लेना एकदम बंद कर दिया था।

अ़लाउद्दीन मृत्युशैया पर पड़ा-पड़ा अपने कुकर्मों को याद कर-कर के चौधारे आंसू बहा रहा था। हीराबाई भी उसके पास ही बैठी हुई थी और उस समय वहां पर कोई तीसरा शख़्स नहीं था। अ़लाउद्दीन का बोल बंद होगया था, पर अभी उसे होश हवास था। हीरा ने एक कटार अपनी मुट्ठी में पकड़ी और अ़लाउद्दीन की ओर लाल-लाल आखों से घूरकर कहा,-

"अय ग़ुनहगार! जिन्हें तू कमला या देवलदेवी समझ रहा है, वे दोनों बेचारियां अब तक पोशिदा तौर से अपने-अपने शौहर के पास मौजूद हैं। मैं और मेरी लड़की लालन कोई और ही हैं, इसलिये अब तुझे यही मुनासिब है कि तू कफ़न के बदले "बेहयाई का बोरक़ा" अपने चेहरे पर डाल ले, वर न ख़ुदा तेरा नापाक मुंह देखकर कभी तुझपर रहम न करेगा। मैं अपनी मेहर्वान रानी कमलादेवी का काम पूरा कर चुकी; पस, अब मुझे इस दुनियां