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हिंदी-साहित्य का इतिहास

मनु की प्रवृत्ति होती है। आसुरी प्रेरणा से वे पशुहिंसापूर्ण काम्य यज्ञ करने लगते हैं जिसमें श्रद्धा को विरक्ति होती है। वह यह देखकर दुखी होती है कि मनु अपने ही सुख की भावना में मग्न होते जा रहे हैं, उनके हृदय में सुख के सब प्राणियों में, प्रसार का लक्ष्य नहीं जम रहा है जिससे मानवता का नूतन विकास होता। मनु चाहते हैं कि श्रद्धा का सारा सद्भाव, सारा प्रेम, एकमात्र उन्हीं पर स्थित रहे, तनिक भी इधर उधर बैटने न पाए। इससे जब वे देखते हैं कि श्रद्धा पशुओं के बच्चों को प्रेम से पुचकारती है और अपनी गर्भस्थ संतति की सुख-क्रीड़ा का आयोजन करती है तब उनके मन में ईर्ष्या होती है और उसे हिमालय की उसी गुफा में छोड़कर वे अपनी सुख-वासना लिए हुए चल देते हैं।

मनु उजड़े हुए सारस्वत प्रदेश में उतरते हैं जहाँ कभी श्रद्धा से हीन होकर सुर और असुर लड़े थे, इंद्र की विजय हुई थी। वे खिन्न होकर सोचते हैं कि क्या मैं उन्ही के समान श्रद्धा-हीन हो रहा हूँ। इसी बीच में अंतरिक्ष से 'काम' की अभिशाप भरी वाणी सुनाई पड़ती है कि––

मनु! तुम श्रद्धा को गए भूल।
उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को उड़ा दिया था समझ तूल
तुम भूल गए पुरुषत्व-मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
सम-रसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।
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यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि।
द्वयता में लगी निरंतर ही वर्णों की करती रहे वृष्टि।
अनजान समस्याएँ ही गढ़ती, रचती हो अपनी ही विनष्टि।
कोलाहल कलह अनंत चले, एकता नष्ट हो, बढ़े भेद।
अभिलषित वस्तु तो दूर रहे, हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद।

प्रभात होता है। मनु अपने सामने एक सुंदरी खड़ी पाते हैं––

बिखरी अलकें ज्यों तर्क-जाल।
वह विश्वमुकुट-सा उज्ज्वलतम शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल।