के लिये रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानुभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जा रही है।
इनकी पहली विशिष्ट रचना "आँसू" (सं॰ १९८८) है। 'आँसू' वास्तव में तो हैं। शृंगारी विप्रलंभ के, जिनमें अतीत संयोग-सुख की खिन्न स्मृतियाँ रह रहकर झलक मारती हैं, पर जहाँ प्रेमी की मादकता की बेसुधी में प्रियतम नीचे से ऊपर आते और संज्ञा की दशा में चले जाते हैं,[१] जहाँ हृदय की तरंगें 'उस अनंत कोने' को नहलाने चलती हैं, वहाँ वे आँसू उस 'अज्ञात प्रियतम' के लिये बहते जान पड़ते हैं। फिर जहाँ कवि यह देखने लगता है कि ऊपर तो––
पर
नीचे विपुला धारणी है दुख-भार वहन-सी करती,
अपने खारे आँसू से करुणा-सागर को भरती।
और इस 'चिर दग्ध दुखी वसुधा' को, इस निर्मल जगती को, अपनी प्रेस-वेदना की कल्याणी शीतल ज्वालामय उजाला देना चाहता है, वहाँ वे आँसू लोकपीड़ा पर करुणा के आँसू से जान पड़ते हैं। पर वहीं पर जब हम कवि की दृष्टि अपनी सदा जगती हुई अखंड ज्वाला की प्रभविष्णुता पर इस प्रकार जमी पाते हैं कि "है मेरी ज्वाला!
तेरे प्रकाश में चेतन संसार वेदनावाला
मेरे समीप होता है पाकर कुछ करुण उजाला।"