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नई धारा

भवसिंधु के बुद्बुद् प्राणियों की तुम्हें शीतल श्वासा कहे, कहो तो।
अथवा छलनी बने अबर के उर की अभिलाषा कहें, कहो तो॥
घुलते हुए चंद्र के प्राण की पीड़ा-भरी परिभाषा कहे, कहो तो।
नभ से गिरती नखतावलि के नयनों की निराशा कहे, कहो तो॥


परिचय

हूँ हितैषी सताया हुआ किसी का, हर तौर किसी का बिसारा हुआ।
घर से किसी के हूँ निकाला हुआ, दर से किसी के दुतकारा हुआ॥
नज़रों से गिराया हुआ किसी का, दिल से किसी का हूँ उतारा हुआ।
अजी हाल हमारा हो पूछते क्या? हूँ मुसीबत का इक मारा हुआ॥

श्री श्यामनारायण पांडेय––इन्होंने पहले "त्रेता के दो वीर" नामक एक छोटा-सा काव्य लिखा था जिसमें लक्ष्मण-मेघनाद-युद्ध के कई प्रसंग लेकर दोनों वीरों का महत्त्व चित्रित किया गया था। यह रचना हरिगीतिका तथा संस्कृत के कई वर्णवृत्तों में द्वितीय उत्थान की शैली पर है। 'माधव' और 'रिमझिम' नाम की इनकी दो और छोटी-छोटी रचनाएँ हैं। इनकी ओजस्विनी प्रतिभा का पूर्ण विकास 'हल्दीघाटी' नामक १७ सर्गों के महाकाव्य में दिखाई पड़ा। 'उत्साह' की अनेक अंतर्दशाओं की व्यंजना तथा युद्ध की अनेक परिस्थितियों के चित्र से पूर्ण यह काव्य खड़ी बोली में अपने ढंग का एक ही है। युद्ध के समाकुल वेग और संघर्ष का ऐसा सजीव और प्रवाहपूर्ण वर्णन बहुत कम देखने में आता है। कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं––

सावन का हरित प्रभात रहा, अंबर पर थी घनघोर घटा।
फहराकर पंख थिरकते थे, मन भाती थी बन-मोर-छटा॥
वारिद के उर में चमक-दमक, तड़ तड़ थी बिजली तड़क रही।
रह रह कर जल था बरस रहा, रणधीर भुजा थी फड़क रही॥
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धरती की प्यास बुझाने को, वह घहर रही थी घनसेना।
लोहू पीने के लिये खड़ी, यह हहर रही थी जनसेना॥