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नई धारा

जैसे––स्वामी रामतीर्थ, तिलक, गोखले, सरोजिनी नायडू इत्यादि की प्रशस्तियाँ; लोकहितकर आयोजनों के लिये अपील (हिंदू-विश्वविद्यालय के लिये लंबी अपील देखिए); दुःख और अन्याय के निवारण के लिये पुकार (कुली-प्रथा के विरुद्ध 'पुकार' देखिये)

उन्होंने जीती-जागती ब्रजभाषा ली है। उनकी ब्रजभाषा उसी स्वरूप में बँधी न रहकर जो काव्य परंपरा के भीतर पाया जाता है, बोलचाल के चलते रूपों को लेकर चली है। बहुत से ऐसे शब्दों और रूपों का उन्होंने व्यवहार किया है जो परंपरागत काव्यभाषा में नहीं मिलते।

'उत्तर रामचरित' और 'मालती-माधव' के अनुवादों में श्लोकों के स्थान पर उन्होंने बड़े मधुर सवैए रखे हैं। मैकाले के अँगरेजी खंड-काव्य 'होरेशस' का पद्यबद्ध अनुवाद उन्होंने बहुत पहले किया था। कविरत्न जी की बड़ी कविताओं में 'प्रेमकली' और 'भ्रमरदूत' विशेष उल्लेख-योग्य है। 'भ्रमरदूत' में यशोदा ने द्वारका में जा बसे हुए कृष्ण के पास संदेश भेजा है। उसकी रचना नंददास के 'भ्रमरगीत' के ढंग पर की गई है, पर अंत में देश की वर्तमान दशा और अपनी दशा का भी हलका-सा आभास कवि ने दिया है। सत्यनारायण जी की रचना के कुछ नमूने देखिए––

अलबेली कहूँ वेलि द्रुमन सों लिपट सुहाई।
धोए धोए पातन की अनुपम कमनाई॥
चातक शुक कोयल ललित, बोलत मधुरे बोल।
कूकि कूकि केकी कलित कुंजन करत कलोल॥

निरखि घन की घटा।


लखि यह सुषमा-जाल लाल निज बिन नँदरानी।
हरि सुधि उमड़ी घुमड़ी तन उर अति अकुलानी॥
सुधि बुधि तज माथौ पकरि, करि करि सोच अपार।
दृगजल मिस मानहुँ निकरि वही विरह की धार॥

कृष्ण रटना लगी।