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सेवासदन
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चलूँ पार्क की तरफ, लोग वहाँ हवा खाने आया करते हैं, सम्भव है, उनसे भेंट हो जाये। शर्माजी नित्य उधर ही घूमने जाया करते है, संभव है, उन्हीं से भेंट हो जाय। उन्हें यह कंगन दे देंगी और इसी बहाने से इस विषय में भी कुछ बातचीत कर लूँगी।

यह निश्यच करके सुमन ने एक किराये की बग्घी मँगवाई और अकेले सैर को निकली। दोनों खिडकियाँ बन्द कर दी, लेकिन झँझरियों से झाँकती जाती थी। छावनी की तरफ दूर तक इधर उधर ताकती चली गई लेकिन दोनों आदमियों में कोई भी न दिखाई पड़ा। वह कोचवान को कुइन्स पार्क की तरफ चलन के लिये कहना ही चाहती थी कि सदन घोड़े को दौड़ाता हुआ आता दिखाई दिया। सुमन का हृदय उछलने लगा। ऐसा जान पड़ा मानो इसे बरसों बाद देखा है। स्थान बदलने से कदाचित् प्रेम में नया उत्साह आ जाता है। उसका जी चाहा कि उसे आवाज दें लेकिन जब्त कर गई। जब तक आँखो से ओझल न हुआ उसे सतृष्ण प्रेम दृष्टि से देखती रही। सदन के सर्वांगपूर्ण सौंदर्य पर वह कभी इतनी मुग्ध न हुई थी। वग्घी कुइन्स पार्क की ओर चली। यह पार्क शहर से बहुत दूर था। कम लोग इधर आते थे। लेकिन पद्मसिंह का एकान्त प्रेम उन्हें यहाँ खीच लाया था। यहाँ विस्तृत मैदान मे एक तकियेदार बेच पर बैठे हुए वह घंटों विचार से मन रहे। ज्योही बग्घी फाटक के भीतर आई सुमन को शर्माजी मैदान में अकेले बैठे दिखाई दिये। सुमन का हृदय दीपशिखा की भाँति थरथराने लगा। भय की इस दशा का ज्ञान पहले होता तो वह यहाँ तक आ ही न सकती। लेकिन इतनी दूर आकर और शर्माजी को सामने बैठे देखकर निष्काम लौट जाना मूर्खता थी। उसने जरा दूर पर बग्घी रोक दी और गाड़ी से उतरकर शर्माजी की ओर चली, उसी प्रकार जैसे शब्द वायु के प्रतिकूल चलता है।

शर्माजी कुतूहल से बग्घी देख रहे थे। उन्होने सुमन को पहचाना नहीं, आश्चर्य हो रहा था कि यह कौन महिला इधर चली आ रही है। विचार किया कि कोई ईसाई लेडी होगी, लेकिन जब सुमन समीप आ गई तो उन्होने उसे