विट्ठलदास ने झुँझलाकर कहा, साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि मैं कुछ नहीं देना चाहता?
चिम्मनलाल-आप ऐसा ही समझ लीजिये। मैंने सारी जाति का कोई ठेका थोड़े ही लिया है?
विट्ठलदास का मनोरथ यहाँ भी पूरा न हुआ, लेकिन यह उनके लिये कुछ नई बात न थी। ऐसे निराशाजनक अनुभव उन्हें नित्य ही हुआ करते थे। वह डाक्टर श्यामाचरण के पास पहुँचे। डाक्टर महोदय बड़े समझदार और विद्वान पुरुष थे। शहर के प्रधान राजनीतिक नेता थे। उनकी वकालत खूब चमकी हुई थी। बहुत तौल-तौल कर मुँह से शब्द निकालते थे। उनकी मौन गंभीरता विचारशीलता का द्योतक समझी जाती थी। शान्ति के भक्त थे, इसलिये उनके विरोध से न किसी को हानि थी, न उनके योग से किसी को लाभ। सभी तरह के लोगो को वे अपना मित्र समझते थे, वह अपनी कमिश्नरी की ओर से सूबे के सलाहकारी सभा के सभासद् थे। विट्ठलदास जी की बात सुनकर बोले मेरे योग्य से जो सेवा होगा वह मैं करने को तैयार हूँ। लेकिन उद्योग यह होना चाहिये कि उन कुप्रथाओ का सुधार किया जाये जिनके कारण ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती है। इस समय आप एक की रक्षा कर ही लेंगे तो इससे क्या होगा? यहाँ तो नित्य ही ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती है। मूल कारणों का सुधार होना चाहिये। आपकी इजाजत हो तो मैं कुछ प्रश्न पूछ सकता हूँ?
विट्ठलदास उछलकर बोल, जी हाँ, यह तो बहुत ही उत्तम होगा? डाक्टर साहब ने तुरन्त प्रश्नों की एक माला तैयार की--
(१) क्या गवर्नमेंट बता सकती है कि गत वर्ष वेश्याओं की संख्या कितनी थी?
(२) क्या गवर्नमेंट ने इस बात का पता लगाया है कि इस वृद्धि के कारण क्या है और सरकार उसे रोकने के लिये क्या उपाय करना चाहती है?
(३) ये कारण कहाँ तक मनोविकारों से संबंध रखते है, कहाँ तक आर्थिक स्थिति और कहाँ तक सामाजिक कुप्रथाओं से?