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सेवासदन
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लेकिन सब काम अपनी हैसियत देखकर ही किये जाते है। दादाजी यह सुनकर आपसे खुश न होंगे।

यह कहकर वह झमककर उठी और सन्दूक मेंं से रुपयों की पाँच पोटलियाँ निकाल लाई, उन्हें पति के सामने पटक दिया और कहा—यह लीजिये ५००) है, जो चाहे कीजिये। रक्खे रहते तो आप ही के काम आते, पर ले जाइये किसी भाँति आपकी चिन्ता तो मिटे। अब सन्दूक में फूटी कौड़ी भी नहीं है।

पण्डिजी ने हकबकाकर रुपयों की ओर कातर, नेत्रों से देखा, पर उनपर टूटे नहीं। मन का बोझ हलका अवश्य हुआ, चेहरे से चित्त की शान्ति झलकने लगी। किन्तु वह उल्लास, वह विह्वलता जिसकी सुभद्रा को आशा थी, दिखाई न दी। एक ही क्षण में वह शान्ति की झलक भी मिट गई। खेद और लज्जा का रंग प्रकट हुआ। इन रुपयों मे हाथ लगाना उन्हें अतीव अनुचित प्रतीत हुआ। सोचने लगे, मालूम नही; सुभद्रा ने किस नियत से यह रुपये बचाये थे, मालूम नही, इनके लिए कौन-कौन से कष्ट सहे थे।

सुभद्राने पूछा, सेत का धन पाकर भी प्रसन्न नही हुए? शर्माजी ने अनुग्रहपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा, क्या प्रसन्न होऊँ? तुमने नाहक यह रुपये निकाले। मैं जाता हूँ, घोडे को लोटा देता हूँ। यह कह दूँगा 'सितारा, पेशानी' है या और कोई दोष लगा दूँगा। सदन को बुरा लगेगा, इसके लिए क्या करूँ।

यदि रुपये देने के पहले सुभद्रा ने यह प्रस्ताव किया होता तो शर्माजी बिगड़ जाते। इसे सज्जनता के विरुद्ध समझते और सुभद्रा को आड़े हाथों लेते, पर इस समय सुभद्रा के आत्मोत्सर्ग ने उन्हें वशीभूत कर लिया था। समस्या यह थी कि घर में सज्जनता दिखावे या बाहर। उन्होने निश्चय किया कि घर में इसकी अधिक आवश्यकता है, किन्तु हम बाहरवालों की दृष्टि में मान मर्यादा बनाये रखनेके लिए घरवालों की कब परवाह करते है?

सुभद्रा विस्मित होकर बोली, यह क्या? इतनी जल्दी काया पलट