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सेवासदन
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अन्त मे वह इस परिणाम पर पहुंची कि वह स्वाधीन है, मेरे पैरो मे बेडियाँ है। उसकी दुकान खुली है इसलिए ग्राहको की भीड़ है, मेरी दुकान बन्द है, इसलिए कोई खडा़ नही होता। वह कुत्तो के थूकने की परवाह नही करती, में लोकनिन्दा से डरती हूँ। वह परदे के बाहर है, मै परदे के अन्दर हूँ। वह डालियो पर स्वच्छदता से चहकती है, मैं उसे पकड़े हुए हुँ। इसी लज्जा ने, इसी उपहास भय ने मुझे दूसरे की चेरी बना रक्खा है।

आधी रात बीत चुकी थी। सभा विसर्जित हुई। लोग अपने-अपने घर गये। सुमन भी अपने घर की ओर चली। चारो तरफ अंधकार छाया हुआ था। सुमन के हृदय में भी नैराश्यका कुछ ऐसा ही अन्धकार था। वह घर जाती तो थी, पर बहुत धीरे-धीरे जैसे घोड़ा बमकी तरफ जाता है। अभिमान जिस प्रकार नोच़ता से दूर भागता है उसी प्रकार उसका हृदय उस घर से दूर भागता था।

गजाधर नियमानुसार नौ बजे घर आया। किवाड बन्द थे। चकराया कि इस समय सुमन कहाँ गई? पड़ोस मे एक विधवा दर्जीन रहती थी, जाकर उससे पूछा। मालूम हुआ कि सुभद्र के घर किसी काम से गई है। कुंजी मिल गई आकर किवाड़ खोले, खाना तैयार था। वह द्वार पर बैठकर सुमन की राह देखने लगा। जब दस बज गये तो उसने खाना परोसा लेकिन क्रोध में कुछ खाया न गया। उसने सारी रसोई उठाकर बाहर फेंक दी आर भीतर से किवाड़ बन्द करके सो रहा। मन मे यह निश्चय कर लिया कि आज कितना ही सिर पटके किवाड़ न खोलूगा, देखें कहाँँ जाती है। किन्तु उसे बहुत देर तक नींद नही आयी। जरा सी भी आहट होती तो वह डंडा लिये किवाड़ के पास आ जाता। उस समय यदि सुमन उसे मिल जाती तो उसकी कुशल न थी। ग्यारह बजने के बाद निद्रा का देव उसे दवा बैठा।

सुमन जब अपने द्वार पर पहुंची तो उसके कान में एक बजने की आवाज आई। वह आवाज उसकी नस नस मे गूंज उठी, वह अभी तक दसग्यारह के धोखे में थी। प्राण सूख गये। उसने किवाड़ की दरारोसे झांका, ढेबरी