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सेवासदन
 


भाग्यशाली पुरुष पर सारी सभा की सम्मान दृष्टि पडने लगती। उस सभा मे एक से एक धनवान, एक से एक विद्वान् एक से एक रूपवान सज्जन उपस्थित थे, किन्तु सबके सब इस वेश्या हाव-भावपर मिटे जाते थे। प्रत्यक मुख इच्छा और लालसा का चित्र बना हुआ था।

सुमन सोचने लगी, इस स्त्री में कौन सा जादू है!

सौन्दर्य? हाँ, हाँ, बह रूपवती है, इसमें सन्देह नही। मगर में भी तो ऐसी बुरी नही हूं। वह सवली है, मैं गोरी हूँ। वह मोटी है, मै दुबली हुँ।

पण्टितजी के कमरे में एक बड़ा शीशा था। सुमन इस शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गई और उसमें अपना नखसे शिखतक देखा। भोली बाई के अपने हृदयांकित चित्र से अपने एक-एक अंग की तुलना की। तब उसने आकर सुभद्रा से कहा, बहूजी एक बात पूछूँ बुरा न मानना। यह इन्द्र की परी क्या मुझसे बहुत सुन्दर है?

सुभद्रा ने उसकी ओर कौतूहल से देखा और मुस्कराकर पूछा, यह क्यो पूछती हो?

सुमन शर्म से सिर झुकाकर कहा कुछ नही, योही। बतलाओ?

सुभद्र ने कहा उसका सुखका शरीर है, इसलिए कोमल है लेकिन रंग रूप में वह तुम्हारे बराबर नही।

सुमन ने फिर सोचा, तो क्या उसके बनाव सिंगापर, गहने कपड़े पर लोग इतने रीझे हुए है? मैं भी यदि वैसा बनाब चुनाव करूँ, वैसे गहने कपडे पहनूँ, तो मेरा रंग-रूप और न निखर जायगा, मेरा यौवन और न चमक जायगा? लेकिन कहां मिलेंगे?

क्या लोग उसके स्वर लालित्य पर इतने मुग्ध हो रहे है? उसके गले में लोच नही, मेरी आवाज उससे बहुत अच्छी है। अगर कोई महीने भर भी सिखा दे तो मैं उससे अच्छा गाने लगूँ। मैं भी बक्र नेत्रो से देख सकती हूँ। मुझे भी लज्जा से आखे नीची करके मुस्कराना आता है।

सुमन बहुत देर तक वहां बैठी कार्य मे कारण का अनुसंधान करती रही।