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सेवासदन
 


इस गाड़ी के पीछे एक और गाड़ी थी। सुभद्रा और भामा उसमें उतरी। सदन को दोनों बहने भी थीं। जीतन कोचबक्स पर से उतरकर लालटेन दिखाने लगा। सदन इतने आदमियों को उतरते देखकर समझ गया कि घर के लोग आ गये पर वह उनसे मिलने के लिये नहीं दौड़ा। वह समय बीत चुका था जब वह उन्हें मनाने जाता। अब उसके मान करने का समय आ गया था। वह चबूतरे पर से उठकर झोपड़े में चला गया, मानों उसने किसी को देखा ही नहीं। उसने उनमें कहा, ये लोग समझते होगे कि इनके बिना में बेहाल हुआ जाता हूँ, पर उन्हे जैसे मेरी परवाह नहीं, उसी प्रकार में भी इनकी परवाह नहीं करता।

सदन झोपड़े में जाकर ताक रहा था कि देखें यह लोग क्या करते है। इतने में उसने जीतन को दरवाजे पर आकर पुकारते हुए देखा। कई मललह इधर-उधर से दौड़े। सदन बाहर निकल आया और दूर से ही अपनी माता को प्रणाम करके एक किनारे खड़ा हो गया।

मदनसिंह बोले, तुम तो इस तरह खड़े हो मानों हमें पहचानते ही नहीं। मेरे न सहीं, पर माता के चरण छूकर आशीर्वाद तो ले लो।

सदन-मेरे छू लेने से आपका धर्म बिगड़ जायेगा।

मदनसिंह ने भाई की ओर देखकर कहा देखते हो इसकी बात। मैं तो तुमसे कहता था कि लोगों को भूल गया होगा, लेकिन तुम खींच लाये। अपने माता पिता को द्वारपर खड़े देखकर भी इसे दया नहीं आती।

भामा ने आगे बढ़कर कहा, बेटा सदन! दादा के चरण छुओ, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो!

सदन अधिक मान न कर सका। आँखों में आँसू भरे पिता के चरणों पर गिर पड़ा। मदनसिंह भी रोने लगे।

इसके बाद वह माता चरणों पर गिरा। भामा ने उठा कर छाती से लगा लिया और आशीर्वाद दिया।

प्रेम, भक्ति और क्षमा कैसा मनोहर, कैसा दिव्य, कैसा आानन्दमय दृश्य है माता पिता का हृदय प्रेम से पुलकित हो रहा है और पुत्र के