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सेवासदन
२८९
 


लगा। युवाकाल को आशा पुआल की आग है जिसके जलने और बुझने में देर नहीं लगती।

अकस्मात् सदन को एक उपाय सूझा गया। वह जो रसे खिलखिलाकर हँसा, जैसे कोई अपने शत्रु को भूमिपर गिराकर बेहँसी की हँसी हँसता है। वाह! मैं भी कैसा मूर्ख हूँ। मेरे सन्दूक में मोहनमाला रखी हुई है। ३००J से अधिक की होगी। क्यों न उसे बेच डालूँ? ‘जब कोई माँगेगा, देखा जायगा। कौन माँगता है और किसी ने माँगा भी तो साफ साफ कह दूँगा कि बेचकर खा गया। जो कुछ करना होगा, कर लेगा और अगर उस समय तक हाथ में कुछ रुपये आ गये तो निकालकर फेक दूँगा। उसने आकर सन्दूक से माला निकाली और सोचने लगा कि इसे कैसे बेचूँ। बाजार में कोई गहना बेचना अपनी इज्जत बेचने से कम अपमान की बात नहीं है, इसी चिन्ता में बैठा था कि जीतन कहार कमरे में झाड़ देने आया। सदन को मलिन देखकर बोला, भैया, आज उदास हो, आँखे चढ़ी हुई है, रात को सोये नहीं क्या?

सदन ने कहा, आज नींद नहीं आई। सिर पर एक चिन्ता सवार है।

जीतन—ऐसी कौन सी चिन्ता है? में भी सुनूँ।

सदन-- तुमसे कहूँ तो तुम अभी सारे घर में दोहाई मचाते फिरोगे।

जीतन-भैया, तुम्हीं लोगों की गुलामी में उमिर बीत गई। ऐसा पेट का हलका होता तो एक दिन न चलता। इससे निसाखातिर रहो।

जिस प्रकार एक निर्धन किन्तु शीलवान मनुष्य के मुँह से बड़ी कठिनता, बड़ी विवशता और बहुत लज्जा के साथ 'नहीं' शब्द निकलता है, उसी प्रकार सदन के मुँह से निकला, मेरे पास एक मोहनमाला है, इसे कहीं बेच दो, मुझे रुपयों का काम है।

जीतन—तो यह कौन बड़ा काम है, इसके लिए क्यों चिन्ता करते हो? मुदा रुपये क्या करोगे? मलकिन से क्यों नही माँग लेते हो? वह कभी नाहीं नहीं करेगी। हाँ, मालिक से कहोगे तो न मिलेगा। इस घर मे मालिक कुछ नहीं है, जो है वह मलकिन है।