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सेवासदन
 

सुमन—कम से कम दुखो का तो अन्त हो जायगा।

गजाधर—हाँ, तुम्हारे दुखो का अन्त हो सकता है, पर उनके दुखों का अन्त न होगा जो तुम्हारे दुखों में दुखी हो रहे हैं। तुम्हारे माता पिता शरीर के बन्धन से मुक्त हो गये है, लेकिन उनकी आत्माएँ अपनी बिदेहावस्था में तुम्हारे पास विचर रही है। वह अभी तुम्हारे मुख से सुखी और दुःख से दुखी होगे। सोच लो कि प्राणघात करके उनको दुख पहुँचाओगी या अपना पुनरुद्धार करके उन्हें सुख और शान्ति दोगी। पश्चात्ताप अंतिम चेतावनी है। जो हमें आत्म-सुधार के निमित्त ईश्वर की ओर से मिलती है। यदि इसका अभिप्राय न समझकर हम शोकावस्था में अपने प्राणों का अन्त कर दे तो मानो हमने आत्मोद्घार की इस अंतिम प्रेरणा को भी निष्फल कर दिया। यह भो सोचो कि तुम्हारे न रहने से उस अवला शान्ता की क्या गति होगी, जिसने अभी संसार के ऊँँच नीच का कुछ अनुभव नहीं किया है, तुम्हारे सिवा उसका संसार में कौन है? उमानाथ का हाल तुम जानती ही हो, वह उसका निर्वाह नहीं कर सकते।उनमें दया है, पर लोभ उससे अधिक है। कभी न कभी वह उससे अवश्य ही अपना गला छुड़ा लेगे। उस समय वह किसकी होकर रहेगी।

सुमन को गजाधर के इस कथन में सच्ची समवेदना की झलक दिखाई दी। उसने उनकी ओर नीचतासूचक दृष्टी से देखकर कहा, शान्ता से मिलने की अपेक्षा मुझे प्राण देना सहज प्रतीत होता है। कई दिन हुए उसने पद्मसिंह के पास एक पत्र भेजा था। उमानाथ उसका कहीं और विवाह करना चाहते है। वह इसे स्वीकार नहीं करती।

गजाधर-देव हैं!

सुमन-शर्मा जी बेचारे और क्या करते है? उन्होंने निश्चय किया है कि उसे बुलाकर आश्रम में रमे। अगर उनके भाई मान जायेगे तब तो अच्छा ही है, नहीं तो उन दुखिया को न जाने कितने दिनों तन आश्रम में रहना पड़ेगा। वह कल यहाँँ आ जायगी। उसके सम्मुख जाने का