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सेवासदन
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कहकर वह मानो ब्रह्मफाँस से फँस गये। वह मनसे पछताने लगे कि उदारता की धुन में मैं इतना असावधान क्यों हो गया। तिरस्कार की मात्रा भी उनकी आशा से अधिक हो गई। वे न समझे थे कि वह यह रूप धारण करेगा और उससे मेरे हृदयपर इतनी चोट लगेगी। अनुतप्त हृदय वह तिरस्कार चाहता है जिसमे सहानुभूति और सहृदयता हो, वह नहीं जो अपमानसूचक और क्रूरतापूर्ण हो। पका हुआ फोड़ा नश्तर का घाव चाहता है, पत्थर का आघात नहीं। गजाधर अपने पश्चात्ताप पर पछताये। उनका मन अपना पूर्वपक्ष समर्थन करने के लिये अधीर होने लगा।

कृष्णचन्द्र ने गरजकर कहा, क्यों, तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला?

गजाधर ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, मेरा हृदय इतना कठोर नहीं था।

कृष्ण——तो घर से क्यों निकाला?

गजाधर——केवल इसलिये कि उस समय मुझे उससे गला छुड़ाने का और कोई उपाय न था।

कृष्णचन्द्र ने मुँह चिढ़ाकर कहा, क्यों जहर खा सकते थे।

गजाधर इस चोट से बिलबिलाकर बोले, व्यर्थ में जान देता?

कृष्ण——व्यर्थ जान देना व्यर्थ जीने से अच्छा है?

गजाधर——आप मेरे जीने को व्यर्थ नहीं कह सकते। आपसे पंडित उमानाथ ने न कहा होगा, पर मैंने इसी याचना-वृत्ति से उन्ह शान्ता के विवाह के लिए १५००J दिये है और इस समय भी उन्हीं के पास यह १०००) लिये जा रहा था, जिससे वह कही उसका विवाह कर दे।

यह कहते कहते गजाधर चुप हो गये। उन्हे अनुभव हुआ कि इस बात का उल्लेख करके मैंने अपने ओछेपन का परिचय दिया। उन्होंने संकोच से सिर झुका लिया।

कृष्णचन्द्र ने संदिग्ध स्वर से कहा, उन्होंने इस विषय में मुझसे कुछ नहीं कहा।

गजाधर——यह कोई ऐसी बात भी नही थी कि वह आपसे कहते।