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सेवासदन
२२१
 


कुवासनाओं में पड़ गया। उसने फिर सुमन की तरफ नहीं देखा। वह सिर झुकाये उसके सामने से निकल गई। सदन ने देखा, उसके पैर काँप रहे थे, वह जगह से न हिला, कोई इशारा भी नहीं किया। अपने विचार में उसने सुमन पर सिद्ध कर दिया कि अगर तुम मुझसे एक कोस भागोगी तो मैं तुमसे सौ कोस भागने को प्रस्तुत हैं। पर उसे यह ध्यान न रहा कि मैं अपनी जगह पर मूर्तिवत् खड़ा हूँ। जिन भावों को उसने गुप्त रखना चाहा, स्वंय उन्ही भावों की मूर्ति बन गया।

जब सुमन कुछ दूर निकल गई तो वह लौट पड़ा और उसके पीछे अपने को छिपाता हुआ चला। वह देखना चाहता था कि सुमन कहाँ जातीहै। विवेक ने वासना के आगे सिर झुका लिया।

३९

जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर घर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हे अब किसी को अपना मुँह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हे संसार की दृष्टि में चाहे कम गिराया हो, पर वे अपनी दृष्टि पे कहीं के न रहे। वे अपने अपमान को सहन न कर सकते थे। वे तीन चार साल कैद रहे, फिर भी अपनी आँखों में इतने नीचे नही गिरे थे। उन्हे इस विचार से संतोष हो गया था कि यह दंड भोग मेरे कुकर्म का फल है, इस कालिमा ने उनके आत्म-गौरव सर्वनाश कर दिया। वे अब नीच मनुष्यों के पास भी नहीं जाते थे, जिनके साथ बैठकर वह चरस की दम लगाया करते थे। वे जानते थे कि मैं उनसे भी नीचे गिर गया हूँ। उन्हें मालूम होता था कि सारे संसार में मेरी ही निन्दा हो रही है। लोग कहते होगें कि इसकी बेटी, यह ख्याल आते ही वह लज्जा और विषाद के सागर में निमग्न हो जाते। हाय! यदि मैं जानता कि वह यो मर्यादा का नाश करेगी तो मैंने उसका गला घोंट दिया होता। यह मैं जानता हूँ कि वह अभागिनी थी, किसी बड़े धनी कुल में रहने योग्य थी, भोग विलासपर जान देती थी। पर यह मैं न जानता था कि