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सेवासदन
 


बात मुझसे से कहते हुए लज्जा नही आती? बड़े सुधारक की दुम बने हो। एक हरजाई की बहन से अपने बेटे का व्याह कर लूँ। छि:छि: तुम्हारी बुद्धि कैसी भ्रष्ट हो गई।

पद्मसिंह ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। उनका मन कह रहा था कि भैया इस समय जो कुछ कर रहे हो वही ऐसी अवस्था में मैं भी करता। लेकिन भयंकर परिणाम विचार करके उन्होंने एक बार फिर बोलने का साहस किया जैसे कोई परीक्षार्थी गजट में अपना नाम न पाकर निराश होते हुए भी शोधपत्र की ओर लपकता है, उसी प्रकार अपने को धोखा देकर पद्मसिहं भाई से दबते हुए बोले, सुमन बाई भी तो अब विधवाश्रम में चली गई है।

पद्मसिंह सिर नीचे किये बात कर रहे थे। भाई से आँँखें मिलाने का हौसला न होता था। यह वाक्य मुँह से निकला ही था कि अकस्मात् मदनसिंह ने एक जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। चौककर सिर उठाया, मदनसिंह खड़े क्रोध से काँप रहे थे। तिरस्कार के वे कठोर शब्द जो उनके मुँह से निकलने वाले थे, पद्मसिंह को भूमिपर गिरते देखकर पश्चाताप से दब गये थे। मदनसिंहकी इस समय वही दशा थी जब क्रोध में मनुष्य अपनाही माँस काटने लगता है।

यह आज जीवन में पहला अवसर था कि पद्मसिंह ने भाई के हाथों धक्का खाया। सारी बाल्यावस्था बीत गई, बड़े-बड़े उपद्रव किये, पर भाई ने कभी हाथ न उठाया। वह बच्चों के सदृश रोने लगे, सिसकते थे, हिचकियाँ लेते थे, पर हृदय में लेशमात्र को भी क्रोध न था। केवल यह दुख था कि जिसने सर्वदा प्यार किया, कभी कड़ी बात नहीं कही, उसे आज मेरे दुराग्रह से ऐसा दु:ख पहुँचा। यह हृदय में जलती हुई अग्नि की ज्वाला है, यह लज्जा, अपमान और आत्मग्लानि का प्रत्यक्ष स्वरुप है, यह हृदय में उमड़े हुए शोक सागर का उद्वेग है। सदन ने लपकर पद्मसिंह को उठाया और अपने पिता की ओर क्रोध से देखकर बोला, आप तो जैसे बावले हो गये है।

इतने में कई आदमी आ गये और पूछने लगे, महराज, क्या बात हुई?