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सेवावदन
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गये तो जान्हवी ने पूछा, आज लालाजी (कृष्णचन्द्र) तुमसे क्या बिगड़ रहे थे।

उमानाथ ने अन्यायपीडित नेत्रों से कहा, मेरा यश गा रहे थे। कह रहे थे, तुमने मुझे लूट लिया, मेरी स्त्री को मार डाला, मेरी एक लड़की को कुएँ में डाल दिया, दूसरी को दुःख दे रहे हो।

'तो तुम्हारे मुँह मे जीभ न थी? कहा होता क्या मैं किसी को नेवता देने गया था? कही तो ठिकाना न था, दरवाजे-दरवाजे ठोकरें खाती फिरती। बकरा जीसे गया, खानेवाले को स्वाद ही न मिला। यहाँ लाज ढोते-ढोते मर मिटे, उसका यह फल। इतने दिन थानेदारी की, लेकिन गंगाजली ने कभी भूलकर भी एक डिविया सेंदूर न भेजा। मेरे सामने कहा होता तो ऐसी ऐसी सुनाती कि दाँत खट्टे हो जाते। दो-दो पहाड़ सी‌‌ लड़कियाँ गलेपर सवार कर दी, उस पर बोलने को मरते है। इनके पीछे फकीर हो गये, उसका यह यश है? अबसे अपना पौरा लेकर क्यों नहीं कही जाते? काहे को पैर में मेहंदी लगाए बैठे है।'

'अब तो जाने को कहते है। सुमन का पता भी पूछा था।'

'तो क्या अब बेटी के सिर पड़ेंगे? वाह रे बेहया!'

'नहीं ऐसा क्या करेगे, शायद दो-एक दिन वहाँ ठहरेगे।'

'कहाँ की बात, इनसे अब कुछ न होगा। इनकी आँखो का पानी मर गया, जाके उसी के सिर पड़ेगें, मगर देख लेना वहाँ एक दिन भी निवाह न होगा।'

अबतक उमानाथ ने सुमन के आत्मपतन की बात जान्हवी से छिपाई थी। वह जानते थे कि स्त्रियों के पेट मे बात नहीं पचती। यह किसी न किसी से अवश्य ही कह देगी और बात फैल जायेगी। जब जान्हवी के स्नेह व्यवहार से‌ वह प्रसन्न होते तो उन्हें उससे सुमन की कथा कहने की बड़ी तीव्र आकांक्षा होती। हृदयसागर में तरंगें उठने लगती, लेकिन परिणाम को सोचकर रुक जाते थे। आज कृष्णचन्द्र की कृतघ्नता और जान्हवी की स्नेहपूर्ण बातों ने उमानाथ को निशंक कर दिया, पेट में बात न रुक सकी। जैसे किसी नाली में