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सेवासदन
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चिम्मनलाल-हिरिया को मेरे यहाँ क्यों नही भेज दिया, हकीम साहब से कोई नुस्खा तैयार करा देता। उनके पास तेलों के अच्छे अच्छे नुस्खे है।

यह कहते हुए सेठजी कुरसी पर बैठे, लेकिन तीन टाँग की कुरसी उलट गई, सेठजी का सिर नीचे हुआ और पैर ऊपर, और वह एक कपड़े की गाँठ के समान औधे मुँह लेट गये। केवल एकबार मुँह से 'अरे' निकला और फिर वह कुछ न बोले। जड़ ने चैतन्य को परास्त कर दिया।

सुमन डरी कि चोट ज्यादा आ गई, लालटेन लाकर देखा तो हँसी न रुक सकी सेठजी ऐसे असाध्य पड़े थे, मानों पहाड़ पर से गिर पड़े है। पड़े-पड़े बोले-हाय राम कमर टूट गयी। जरा मेरे साईस को बुलवा दो, घर जाऊँगा।

सुमन-चोट बहुत आ गई क्या? आपने भी तो कुरसी खींच ली, दीवार से टिककर बैठते तो कभी न गिरते। अच्छा, क्षमा कीजिये, मुझी से भूल हुई कि आपको सचेत न कर दिया। लेकिन आप जरा भी न सँभले, बस गिर ही पड़े।

चिम्मन--मेरी तो कमर टूट गई और तुम्हें मसखरी सूझ रही है।

सुमन-तो अब इसमे मेरा क्या वश है? अगर आप हलके होते तो उठाकर बैठा देती। जरा खुद ही जोर लगाइये, अभी उठ बैठियेगा।

चिम्मन--अब मेरा घर पहुँचना मुश्किल है। हाय! किस बुरी साइत से चले थे, जीने पर से उतरने में पूरी सांसत हो जायगी। बाईजी, तुमने यह कब का वैर निकाला?

सुमन-सेठजी, मैं बहुत लज्जित हूँ।

चिम्मन-अजी रहने भी दो, झठ मूठ बाते बनाती हो। तुमने मुझे जानकर गिराया।

सुमन क्या आपसे मुझे कोई वैर था? और आपसे वैर हो भी तो आपकी बेचारी कमर ने मेरा क्या बिगाड़ा था?

चिम्मन-अब यहाँ आनेवाले पर लानत है।