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समर-यात्रा
 


करना ही पड़ेगा। कैसे छोड़ें। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है; लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ, बेचारे कैसे दफ्तर जाते होंगे, कैसे भान को सँभालते होंगे। सासजी के पास तो रहता ही नहीं। वह बेचारी बूढी, उसके साथ कहाँ-कहाँ दौड़ें ! चाहती हैं कि मेरी गोद में दबककर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेंगी, बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आईं। कल अदालत में बाबूजी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा हैं। तीन दिन तक तो दाना-पानी छोड़े रहीं। इस छोकरी ने कुल-मरजाद डुबादी, ख़ानदान में दाग लगा दिया, कलमुँही, कुलच्छनी न जाने क्या-क्या बकती रहीं। मैं तो उनकी बातों को बुरा नहीं मानती। पुराने ज़माने की हैं। उन्हें कोई चाहे कि पाकर हम लोगों में मिल जाय, तो यह उसका अन्याय है। चलकर मनाना पड़ेगा। बड़ी मिन्नतों से मानेगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्मण खायेगे। बिरादरी जमा होगी। जेल का प्रायश्चित्त तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो-चार दिन रहकर तब जाना बदन ! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी।

क्षमा आनंद के इन प्रसंगों से वंचित है। वह विधवा है, अकेली है।जलियानवाला बाग़ में उसका सर्वस्व लुट चुका है, पति और पुत्र दोनों ही की आहुति दी जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं, जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणी-मात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति-सेवा में धैर्य और शान्ति खोज रहा है। जिन कारणों ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी, उन कारणों का अंत करने-उनको मिटाने-में वह जी-जान से लगी हुई थी। बड़े से बड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था। औरों के लिए जाति-सेवा सभ्यता का एक संस्कार हो, या यशो-पाजन का एक साधन; क्षमा के लिए तो यह तपस्या थी, और वह नारीत्व की सारी शक्ति और श्रद्धा की साधना मे लगी हुई थी; लेकिन आकाश में उड़ने वाले पक्षी को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है । क्षमा के लिए