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समर-यात्रा
 


जयराम ने प्रसन्न होकर कहा--मैं सच्चे हृदय से आपको धन्यवाद देता हूँ।

मिसेज़ सकसेना ने निराश होकर कहा-महाशय जयराम, आपने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है और मैं इसे कभी क्षमा न करूँगी। आप लोगों ने इस बात का आज नया परिचय दे दिया कि पुरुषों के अधीन स्त्रियाँ अपने देश की सेवा भी नहीं कर सकतीं।दूसरे दिन,तीसरे पहर जयराम पांच स्वयंसेवकों को लेकर बेगमगंज के शराबखाने का पिकेटिंग करने जा पहुँचा। ताड़ी और शराब-दोनों की दूकानें मिली हुई थीं। ठीकेदार भी एक ही था। दूकान के सामने,सड़क की पटरी पर, अन्दर के आंगन में नशेबाज़ों की टोलियाँ विष में अमत का आनन्द लूट रही थीं। कोई वहाँ अफ़लातून से कम न था। कहीं अपनी-वीरता की डींग थीं, कहीं अपने दान-दक्षिणा के पचड़े, कहीं अपने बुद्धि-कौशल का पालाप। अहंकार नशे का मुख्य रूप है।

एक बूढ़ा शराबी कह रहा था-भैया, जिन्दगानी का भरोसा नहीं;हाँ, कोई भरोसा नहीं ; मेरी बात मान लो, जिन्दगानी का कोई भरोसा नहीं। बस यही खाना-खिलाना याद रह जायगा। धन-दौलत, जगह-जमीन-सब धरी रह जायगी!

दो ताड़ीबाज़ों में एक दूसरी बहस छिड़ी हुई थी--

'हम-तुम रिाया हैं भाई। हमारी मजाल है कि सरकार के सामने सिर उठा सकें'

'अपने घर में बैठकर बादशाह को गालियां दे लो ; लेकिन मैदान में आना कठिन है।

'कहाँ की बात भैया,सरकार तो बड़ी चीज़ है, लाल पगड़ी देखकर तो घर में भाग जाते हो।'

'छोटा आदमी भर पेट खा के बैठता है,तो समझता है,अब बादशाह हमी हैं ; लेकिन अपनी हैसियत को भूलना न चाहिए।'

'बहुत पक्की बात कहते हो खां साहब ! अपनी असलीयत पर डटे रहो।