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समर-यात्रा
 

नहीं सुनाया; लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी। मैं जेल से नहीं डरती; लेकिन बेवकूफ़ भी नहीं बनना चाहती। वहाँ हमारे मंत्रीजी भी थे और बहुत-सी बहनें थीं। सब यही कहती थीं, तुम छूट जाओगी।

महिलाएँ उसे द्वेषभरी आँखों से देखती हुई चली गईं। उनमें किसी की मियाद साल भर की थी, किसी की छः मास की। उन्होंने अदालत के सामने ज़बान ही न खोली थी। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था। मृदुला पुलीस से जिरह करके उनकी नज़रों में गिर गई थी। सज़ा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षमा हो सकता था; लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित्त ही न था।

दूर जाकर एक देवी ने कहा—इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं।

दूसरी महिला बोली—यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर है। गई तो थीं धरना देने, नहीं दूकान पर जाने का काम ही क्या था। वालेंटियर गिरफ्तार हुए थे, आपकी बला से। आप वहाँ क्यों गईं; मगर अब कहती हैं, मैं धरना देने गई ही नहीं। यह तो क्षमा माँगना हुआ, साफ़!

तीसरी देवी मुँह बनाकर बोलीं—जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। उस वक़्त तो वाह-वाह लूटने के लिए आ गईं, अब रोना आ रहा है। ऐसी स्त्रियों को तो राष्ट्रीय कामों के नगीच ही न आना चाहिए। आन्दोलन को बदनाम करने से क्या फ़ायदा।

केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल भर की सज़ा पाई थी। दूसरे ज़िले से एक महीना हुआ यहाँ आई थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाक़ी थे। यहाँ की पन्द्रह कैदियों में किसी से उनका दिल न मिलता था। ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव-सिंगार की चीज़ों के लिए लेडीवार्डरों की ख़ुशामदें करना, घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना उसे पसन्द न था। वही कुत्सा और कनफुसकियाँ जेल के भीतर भी थीं। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल क़ैदी में होना चाहिए, किसी में भी न था। क्षमा उन सबों