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ठाकुर का कुआँ
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झाँकने नहीं पाता। कन्धा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे।'

इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती ; किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।

( २ )

रात के नौ बजे थे। थके-मादे मजदूर तो सो चुके थे। ठाकुर के दरवाज़े पर दस-पांच बे-फ़िक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब ज़माना रहा है न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक ख़ास मुकद्दमे में रिश्वत दे दी और साफ़ निकल गये। कितनी अक्लमन्दी से एक मार्के के मुकदमे की नक़ल ले आये। नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नक़ल नहीं मिल सकती। कोई पचास मांँगता, कोई सौ। यहाँ बे-पैसे-कौड़ी नक़ल उड़ा दी। काम करने का ढंग चाहिए।

इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुंची।

कुप्पी की धुंँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इन्तजार करने लगी। इस कुएँ का पानी गाँव पीता है। किसी के लिए रोक नहीं ; सिर्फ़ ये बदनसीब नहीं भर सकते।

गंगी का विद्रोही दिल रिवाज़ी पाबंदियों और मज़बूरियों पर चोटें करने लगा---हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों उँच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ! यहाँ तो जितने हैं एक से-एक छटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फ़रेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इसी ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़ेरिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद को मारकर खा गया। इन्हीं पंडितजी के घर में तो बारहों मास जूआ होता है। यही साहूजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस बात में हैं हम से ऊँचे ! हाँ, मुँह में हम से ऊँचे हैं। हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रिस भरी आँखों से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है; परन्तु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं।