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क़ानूनी कुमारी
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दुर्भिक्ष। समझ में नहीं आता, अब कितना निर्ख घटाऊँ। इन दामों अलग घर में मोटा खाना भी नसीब नहीं हो सकता। उसपर सारे जमाने की झंझट,कभी नौकर का रोना, कभी दूधवाले का रोना, कभी धोबी का रोना, कभी मेहतर का रोना। यहाँ सारे जंजाल से मुक्ति हो जाती है ; फिर भी आधे कमरे खाली पड़े हैं।

क़ानूनी -- यह तो आपने बुरी खबर सुनाई ।

आचार्या-पच्छिम में क्यों इतना सुख और शान्ति है, क्यों इतना प्रकाश और धन है, क्यों इतनी स्वाधीनता और बल है ! इन्हीं होटलों के प्रसाद से। होटल पच्छिमी गौरव का मुख्य अंग है, पच्छिमी सभ्यता का प्राण है। अगर आप भारत को उन्नति के शिखर पर देखना चाहते हैं, तो होटल-जीवन का प्रचार कीजिए। इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है। जब तक छोटी-छोटी घरेलू चिन्ताओं से मुक्त न हो जायेंगे, आप उन्नति कर ही नहीं सकते । राजों, रईसों को अलग घरों में रहने दीजिए, वह एक की जगह दस ख़र्च कर सकते हैं। मध्यम श्रेणीवालों के लिए होटल के प्रचार में ही सब कुछ है। हम अपने सारे मेहमानों की फिक्र अपने सिर पर लेने को तैयार हैं, फिर भी जनता की आँखे नहीं खुलतीं। इन मूखों की आँखें उस वक्त तक न खुलेगी, जब तक कानून न बन जायगा।

क़ानूनी-(गंभीर भाव से ) हाँ, मैं भी सोच रहा हूँ। जरूर कानून से मदद लेनी चाहिए। एक ऐसा कानून बन जाय कि जिन लोगों की आय ५०) से कम हो, वह होटलों में रहें। क्यों ? आचार्या-आप अगर यह कानून बनवा दें, तो आनेवाली संतान आप को अपना मुक्तिदाता समझेगी। आप एक कदम में देश को ५०० वर्ष की मंज़िल तय करा देंगे।

क़ानूनी-तो लो, अबकी यह कानून भी असेंबली खुलते ही पेश कर दूँगा। बड़ा शोर मचेगा। लोग देश-द्रोही और जाने क्या-क्या कहेंगे : पर इसके लिए तैयार हूँ। कितना दुःख होता है, जब लोगों को अहीर के द्वार पर लुटिया लिये खड़ा देखता हूँ। स्त्रियों का जीवन तो नरक-तुल्य हो रहा है। सुबह से दस-बारह बजे रात तक घर के धन्धों से फुरसत नहीं। कभी