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समर-यात्रा

आज सबेरे ही से गांव में हलचल मची हुई थी। कच्ची झोपड़ियाँ हँसती हुई जान पड़ती थीं। आज सत्याग्रहियों का जत्था गांव में आयेगा । कोदई चौधरी के द्वार पर चंदवा तना हुआ है। आटा, घी, तरकारी, दूध, दही जमा किया जा रहा है। सबके चेहरों पर उमंग है, हौसला है, आनन्द है। वही विन्दा अहीर, जो दौरे के हाकिमों के पड़ाव पर पाव-पाव भर दूध के लिए मुह छिपाता फिरता था, आज दूध और दही के दो मटके अहिराने से बटोरकर रख गया है। कुम्हार जो घर छोड़कर भाग जाया करता था, मिट्टी के बर्तनों का अटम लगा गया है। गांव के नाई-कहार सब आप ही आप दौड़े चले आ रहे हैं। अगर कोई प्राणी दुखी है, तो नोहरी बुढ़िया है; वह अपनी झोपड़ी के द्वार पर बैठी हुई अपनी पचहत्तर साल की बूढ़ी, सिकुड़ी हुई आँखों से यह समारोह देख रही है और पछता रही है । उसके पास क्या है, जिसे लेकर कोदई के द्वार पर जाय और कहे---मैं यह लाई हूँ, वह तो दानों को मुहताज है।

मगर नोहरी ने अच्छे दिन भी देखे हैं। एक दिन उसके पास धन, जन सब कुछ था । गाँव पर उसी का राज था। कोदई को उसने हमेशा नीचे दबाये रखा। वह स्त्री होकर भी पुरुष थी। उसका पति घर में सोता था, वह खेत में सोने जाती थी। मामले-मुकदमे की पैरवी खुद ही करती थी। लेना-देना सब उसी के हाथों में था; लेकिन वह सब कुछ विधाता ने हर लिया; न धन रहा. न जन रहे---अब उनके नामों को रोने के लिए वही बाकी थी । आँखों से सूझता न था, कानों से सुनाई न देता था, जगह से हिलना मुश्किल था। किसी तरह ज़िन्दगी के दिन पूरे कर रही थी और उधर कोदई के भाग उदय हो गये थे। अब चारों ओर कोदई की पूछ थी---पहुँच थी । आज यह जलसा भी कोदई के द्वार पर हो रहा है । नोहरी को अब कौन पूछेगा। यह सोचकर उसका मनस्वी हृदय मानो किसी पत्थर