पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/१०१

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आहुति
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रूपमणि ने स्वर को कठोर बनाकर कहा--जी हां, कहा । तुम्हें यह क्या

सूझी । दो साल से कम के लिए न जाओगे !

विशंभर का मुंह गिर गया। बोला--जब यह जानती हो, तो क्या तुम्हारे पास मेरी हिम्मत बँधाने के लिए दो शब्द नहीं हैं !

रूपमणि का हृदय मसोस उठा; मगर बाहरी उपेक्षा को न त्याग सकी। बोली-तुम मुझे दुश्मन समझते हो या दोस्त !

विशंभर ने श्राखों में आँसू भरकर कहा--तुम ऐसा प्रश्न क्यों करती हो, रूपमणि ? इसका जवाब मेरे मुँह से न सुनकर भी क्या तुम नहीं समझ सकती?

रूपमणि--तो मैं कहती हूँ, तुम मत जाओ।

विशंभर-यह दोस्त की सलाह नहीं है, रूपमणि ! मुझे विश्वास है, तुम हृदय से यह नहीं कह रही हो। मेरे प्राणों का क्या मल्य है, जरा यह सोचो। एम० ए० होकर भी सौ रुपये की नौकरी! बहुत बढ़ा तो तीन-चार सौ तक जाऊँगा । इसके बदले यहाँ क्या मिलेगा, जानती हो ? संपूर्ण देश का स्वराज्य । इतने महान् हेतु के लिए मर जाना भी उस ज़िन्दगी से कहीं बढ़कर है। अब जाओ, गाड़ी आ रही है। आनन्द बाबू से कहना,मुझसे नाराज़ न हों।

रूपमणि ने आज तक इस मन्दबुद्धि युवक पर दया की थी। इस समय वह उसकी श्रद्धा का पात्र बन गया । त्याग में हृदय को खींचने की जो शक्ति है, उसने रूपमणि को इतने वेग से खींचा कि परिस्थितियों का अन्तर मिट-सा गया। विशंभर में जितने दोष थे, वे सभी अलंकार बन-बनकर चमक उठे। उसके हृदय की विशालता में वह किसी पक्षी की भांति उड़-उड़कर आश्रय खोजने लगी।

रूपमणि ने उसकी ओर अातुर नेत्रों से देखकर कहा- मुझे भी अपने साथ लेते चलो।

विशंभर पर जैसे घड़ों का नशा चढ़ गया।

'तुमको १ आनन्द बाबू मुझे जिंदा न छोड़ेंगे !'

'मैं आनन्द के हाथों बिकी नहीं हूँ।'