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उपदेश
 

इस शुभ कार्यमे मैं तुम्हारा हाथ बटा सकता, पर आज ही देहातोंमें भी बीमारी फैलनेका समाचार मिला है। अतएव मैं यहांका काम आपके सुयोग्य, सुदृढ हाथोंमें सौंपकर देहातमें जाता हूँ कि यथासाध्य देहाती भाइयोंकी सेवा करूँ। मुझे विश्वास है कि आप सहर्ष मातृभूमि के प्रति अपना कर्तव्य पालन करेंगे।

इस तरह गला छुड़ाकर शर्माजी सन्ध्या समय स्टेशन पहुचे। पर मन कुछ मलिन था। अपनी इस कायरता और निर्बलतापर मन ही मन लज्जित थे।

संयोगवश स्टेशनपर उनके एक वकील मित्र मिल गये। यह वही वकील ये जिनके आश्रयमें बाबूलालका निर्वाह होता था। यह भी भागे जा रहे थे। बोले, कहिये शर्माजी किधर चले? क्या भाग खड़े हुए?

शर्माजीपर घडों पानी पड़ गया, पर सँभलकर बोले, भागू क्यों?

वकील—सारा शहर क्यों भागा जा रहा है?

शर्माजी—मैं ऐसा कायर नहीं हूँ।

वकील—यार, क्यों बाते बनाते हो, अच्छा बताओ, कहाँ जाते हो?

शर्माजी—देहातों में बीमारी फैल रही है, वहां युद्ध "रिलीफ" ना काम करूँगा।

वकील—यह बिल्कुल झूठ है। अभी मैं डिस्ट्रिक्ट गजट देखके चला आता हूं। शहर के बाहर कहीं बीमारीका नाम नहीं।