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सप्तसरोज
१६
 


लेती रही, परन्तु जब उसने देखा कि ये औषधियां कुछ काम नहीं करती तब वह एक महौषधि की फिक्र में लगी जो काया-कल्प से कम नहीं थी। उसने महीनों, बरसों इसी चिन्ता-सागर में गोते लगाते काटे। उसने दिलको बहुत समझाया, परन्तु मन में जो बात समा गई थी वह किसी तरह न निकली। उसे बड़ा भारी आत्मत्याग करना पड़ेगा। शायद पति-प्रेम के सदृश अनमोल रत्न भी उसके साथ निकल जाय, पर क्या ऐसा हो सकता है? पन्द्रह वर्षतक लगातार जिस प्रेम के वृक्ष की उसने सेवा की है क्या वह हवा का,एक झोंका भी न सह सकेगा?

गोदावरी ने अन्तमें अपने प्रवल विचारों के आगे सिर झुका ही दिया। अब सौतका शुभागमन करने के लिये वह तैयार हो गई थी।

पण्डित देवदत्त गोदावरीका यह प्रस्ताव सुनकर स्तम्भित हो गये। उन्होंने अनुमान किया कि या तो यह प्रेम की परीक्षा कर रही है या मेरा मन लेना चाहती है। उन्होंने उसकी बात हसकर टाल दी। पर जब गोदावरीने गम्भीर भावसे कहा, तुम इसे हंसी मत समझो मैं अपने हृदय से कहती हूँ कि संतानका मुंह देखने के लिये मैं सौत से छातीपर मूंग दलवाने के लिये भी तैयार हूँ, तब तो उनका सन्देह जाता रहा। इसने ऊचे और पवित्र भावसे भरी हुई गोदावरी को उन्होंने गले से लिपटा लिया। वे बोले मुझसे यह न होगा। मुझे सन्तान की अभिलाषा नहीं। गोदावरी ने जोर देकर कहा, तुमको न हो, मुझे तो है। अगर