पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३५

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२४
विचित्र प्रबन्ध।

नाटकोँ में वास्तविक सत्य के बिना काम नहीं चल सकता। कल्पना केवल उनका मनोरंजन नहीं करती, काल्पनिक को बिल्कुल वास्तविक बनाकर बालकोँ की तरह उनको बहलाना भी पड़ता है। वहाँ काव्य-रस में प्राणसंचार करनेवाली केवल विशल्यकरणी ओषधि (अर्थात् कल्पना) से काम नहीं चल सकता, उस विशल्यकरणी के साथ ही साथ समस्त गन्ध-मादन पर्वत (अर्थात् सत्य की नक़ली सामग्री) तक चाहिए। इस समय कलियुग है, अतएव गन्धमादन को उठा लाने के लिए इंजीनियरी की आवश्यकता है, और उसके लिए ख़र्च भी कम नहीं करना पड़ता। विलायत के स्टेज (रङ्गमञ्च) पर यही अभिनय दिखाने के लिए जितना व्यर्थ ख़र्च होता है उतने में भारत के कितने ही भारी दुर्भिक्ष दूर हो सकते हैं।

पूर्वी देशों के काम-काज, खेल-तमाशे सभी सीधे और सहज हैं। केले के पत्ते या पत्तल में हम भोजन कर सकते हैं, इसीसे भोज का सच्चा आनन्द––सबको बे रोक टोक अपने घर पर निमन्त्रित कर लाना––प्राप्त होता है। यदि बाहरी सामग्रियों की अधिकता होती, यदि अधिक दिखाऊ आयोजन किये जाते, तो निःसन्देह उनमें भोज का असली आनन्द कुचल कर मर जाता।

विलायत का अनुकरण करके जो थियेटर आजकल हमारे देश मेँ किया जारहा है, वह बाहरी पदार्थों से दबा हुआ एक फूला हुआ पदार्थ है। उसको हिलाना कठिन है––अपने अनुकूल करना कठिन है और धनी-ग़रीब आदि सबके सामने उसे उपस्थित करना भी असाध्य है। इन थियेटरों मेँ लक्ष्मी के वाहन उल्लू ने सरस्वती