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विचित्र प्रबन्ध


लाइब्ररी

महासागर की सैकड़ों वर्ष की लहरें यदि इस तरह बाँधकर रक्खी जा सकतीं कि ये, सोरहे बालक की तरह, चुपचाप पड़ी रहतीं तो उस नीरव महाशब्द के साथ इस लाइब्रेरी की तुलना की जा सकती। यहाँ भाषा चुप है, प्रवाह स्थिर है, मनुष्य के आत्मा का अमर प्रकाश काले काले अक्षरों की शृङ्खला से जकड़ा हुआ कागज़ के कारागार में बँधा पड़ा है। यदि ये मानवात्मा के स्वर्गीय प्रकाश कहीं सहसा विद्रोही हो उठे, अपनी नि:स्तब्धता को तोड़ डालें, अक्षरों की शृङ्खला को तोड़ कर बाहर निकल आवें तो! हिमालय के शिखर पर आँधी कड़ी बर्फ़ के बीच जैसे कितनी ही बहिया बँधी हुई हैं वैसे ही यहाँ लाइब्रेरी मेँ मनुष्य के हृदय की बहियाओं को किसने बाँध रक्खा है!

बिजली को मनुष्य ने लोहे के तार में बाँध दिया है, परन्तु कौन जानता था कि मनुष्य शब्द को चुप्पी में बाँध सकेगा! कौन जानता था कि मनुष्य सङ्गीत को, हृदय की आशा को, जागते हुए आत्मा की आनन्द-ध्वनि को, आकाश की दैववाणी को काग़ज़ की पुडिया में बाँध रक्खेगा? कौन जानता था कि मनुष्य भूत-काल को वर्तमान काल में क़ैद कर लेगा! कौन समझता