पृष्ठ:राबिन्सन-क्रूसो.djvu/२८८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६५
दूसरी बार की विदेश-यात्रा।


भयानक भूख से प्राण आकुल-व्याकुल होने लगे। पुत्र-विच्छेद से स्नेहातुरा माँ जैसी विकल होती है वैसी ही विकल मैं भी हो गई थी। मैंने फिर ज़रा होश कर के चीनी का शरबत पिया। पर वह पचा नहीं, तुरन्त उल्टी हो गई। तब थोड़ा सा पानी पिया, वह पेट में ठहरा। इसके अनन्तर बिछौने पर लेट कर मैं एकाग्र मन से यो ईश्वर की प्रार्थना करने लगी-'हे ईश्वर, अब मुझे अपनी मृत्यु-तापहारिणी गोद में जगह दीजिए। इस प्रकार मुझे भूखो क्यों मार रहे हैं?' इस प्रकार प्रार्थना करने से चित्त को कुछ शान्ति मिली। मैं मृत्यु की दुराशा को हृदय मे रख कर सो गई। कुछ देर के बाद नींद टूट जाने पर सम्पूर्ण संसार शून्य सा दीखने लगा। मैं जीती हूँ या मर गई, इसका भी कुछ ज्ञान न रहा। मैं इस अवस्था को परमशान्तिमय मान कर अपने मन और आत्मा को ईश्वर के चरण-कमलों में समर्पित कर के मौन हो रही। मेरे मन में यह इच्छा होने लगी कि कोई मुझको समुद्र में फेंक कर सलिलसमाधि द्वारा मेरी जठराग्नि की ज्वाला को ठंडा कर दे।

"मेरी इस अवस्था तक मेरो स्वामिनी मेरे हो पास पड़ी थी और धीरे धीरे मृत्यु मुख की ओर अग्रसर हो रही थी। वह मेरी भाँति उतावली न हुई। वह शान्त भाव से प्रात्मत्याग कर के मृत्यु से मिलने के लिए हाथ पसार रही थी। वह अपने मुँह की रोटी अपने बेटे को खि ना कर आप निश्चिन्त थी।

"प्रातःकाल ज़रा मेरी आँखें लगीं। जागने पर मैं आपही आप न मालूम क्यों रोने लगी। मैं अपने रोदन को किसी प्रकार रोक़ नहीं सकती थी। उसके साथ साथ भूख की ज्वाला भी नहीं सही जाती थी। मैं हिंस्र पशु की भाँति