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क्रूसो की मानसिक अशान्ति।

लोग कहा करते हैं, "जाको है जौन सुभाव, सुनो वह कोटि उपाय किये न हिलै," "न घिसने से स्वभाव जाता है, और न धोने से कलङ्क छूटता है।" यह कहावत मुझपर खूब घटती थी। पैंतीस वर्ष तक दारुण कष्ट भोगने के बाद सात वर्ष शान्ति से सुख भोग कर इस एकसठ साल के बुढ़ापे में देश-भ्रमण की इच्छा जाग उठने का कोई कारण न था, क्योंकि जो लोग देश घूमते हैं वे या तो द्रव्योपार्जन के लिए जाते हैं या देश देखने के लिए। किन्तु मैंने देश घूम कर रुपया भी खूब बटोरा और देश भी अनेक देखे। अतएव देशान्तर जाने की मुझे कोई आवश्यकता न थी। परन्तु यह बात मैं ऊपर कह आया हूँ कि "स्वभावो बलवत्तरः", मेरा सैर करने का स्वभाव मुझको घर से बाहर होने के लिए दिन रात तक़ाज़ा करने लगा। इस विषय में मेरा जो इतना लगा रहता था कि स्वप्न में भी देश-भ्रमण की ही बात देखता और बकता था। मेरे इस विषय की नित्य प्रति की एक ही बात लोगों को कर्णकटु हो उठी थी। यह मै भली भाँति समझता था, किन्तु भ्रमण का उन्माद मेरे सिर पर सवार था। वह मुझे दूसरी ओर हिलने डुलने न देता था।

पथ-विहरण की लालसा लगी रहे जिय माँहि।
मनो पुकारत सो हमें छिनहू बिसरत नाँहि॥

मैं किसी तरह उसके खिंचाव को रोक नहीं सकता था, किन्तु यह भी न जान सकता था कि मेरा झुकाव उस तरफ़ इतना क्यों है। चाहे जिस कारण से हो, मुझे घूमने का नशा था और उसने मुझको अपने अधीन बना रक्खा था। बुद्धिमान् लोग कहा करते हैं कि असल में भूत-प्रेत कुछ नहीं है, केवल मस्तिष्क की ख़राबी से लोगों के ख़यालात बदल जाते