पृष्ठ:राबिन्सन-क्रूसो.djvu/२०७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८६
राबिन्सन क्रूसो।


निर्दिष्ट यात्रा के लिए नवम्बर दिसम्बर मास की अपेक्षा करने लगा।

"वर्षा विगत शरद ऋतु आई", वर्षा बीत चली। अब आकाश में कहीं बादल दिखाई नहीं देते। बिजली की वह चमक दमक अब कहीं देखने में नहीं आती। बादल ही के साथ वह भी अन्तर्हित हो गई। इन्द्रधनुष का कहीं नाम निशान नहीं रहा। सारा आकाशमण्डल निर्मल हो गया। रात में पूर्ण चन्द्र की छटा लोगों के हृदय को आकृष्ट करने लगी। पथिकगण स्वच्छन्दतापूर्वक स्वदेश यात्रा करने लगे। हम भी यात्रा के लिए धीरे धीरे आयोजना करने लगे। एक दिन मैंने फ़्राइडे को एक कछुवा पकड़ लाने का आदेश किया। फ़्राइडे जाने के बाद तुरन्त ही दौड़ता हुआ आया और घेरा लाँघ कर मेरे पास पहुँचा। उसने हाँफते हाँफते कहा-प्रभो, प्रभो, सर्वनाश हुआ! बड़ी विपत्ति है।

मैंने विस्मित हो कर पूछा-"क्या हुआ? कुछ कहो भी तो। क्या मामला है?" फ़्राइडे ने आँखे फाड़ कर के कहा-"अरे बाबा! एक! दो!! तीन! मैंने अपनी आँखों देखा है एक-दो-तीन।" यह सुन कर में अवाक् हो रहा! एक, दो, तीन क्या? बहुत सोचने पर समझा कि असभ्यों की तीन नावें किनारे आ लगी हैं। मैं फ़्राइडे को धैर्य्य बँधाने की चेष्टा करने लगा। भाँति भाँति से उसे ढाढ़स देने लगा। वह भय से काँप रहा था। उसकी यह धारणा थी कि वे लोग उसीको खोजने आये हैं और उसको पकड़ते ही मार कर खा जायँगे। मैंने उसको ढाढ़स दे कर कहा-घबराओ मत, देखो जो विपत्ति तुम पर है वही मुझ पर भी है। तब तुम