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विषय प्रवेश नहीं रह जाती, तब मानों उनके प्राण निकल जाते हैं, केवल शरीर वचे रहते हैं । यद्यपि प्राकृतों के विकास को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय आर्य-भाषाएँ मृत नहीं हैं, उनमें निरंतर विकास हुआ है और वे आधुनिक देश-भाषाओ के रूप में वर्तमान हैं, परंतु संस्कृत इन्हीं आदिम बोल-चाल की भापाओं की शाखा से सुधरकर बनी है और उसका रूप एक प्रकार से वैयाकरणों की कृपा से सर्वदा के लिये स्थिर हो गया है। कुछ भी हो, संस्कृत का अध्ययन इतने वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप से हुआ है कि संस्कृत व्याकरण आजकल के भाषा-वैज्ञानिकों के लिये भी आदर और आश्चर्य की वस्तु माना जाता है। विषय की दृष्टि से भाषा-विज्ञान के तीन अंग होते हैं-ध्वनि, रूप और अर्थ* । और इन्हीं तीनों अंगों के विवेचन की दृष्टि से ध्वनि- विचार, ध्वनि-शिक्षा, रूप-विचार, वाक्य-विचार, भापा-विज्ञान के अंग अर्थ-विचार और प्राचीन शोध भापा-विज्ञान के प्रधान अंग हैं। ध्वनि-विचार अथवा ध्वनि-विज्ञान के अंतर्गत ध्वनि के परिवर्तनों का तांत्रिक विवेचन तथा ध्वनि-विकारों का इतिहास आदि सभी बातें आ जाती हैं। पर ध्वनि-शिक्षा का संबंध साक्षात् ध्वनियों के उच्चारण और विवेचन से रहता है। पुराने भापा- शास्त्री ध्वनि का ऐतिहासिक तथा ताविक विवेचन किया करते थे, पर आधुनिक वैज्ञानिक ध्वनि-शिक्षा की ओर अधिक ध्यान देते हैं। रूप-विचार, प्रकृति-प्रत्यय आदि भापा का रूपात्मक विवेचन करता है। इसका प्रधान आधार व्याकरण है। वाक्य-विचार भी व्याकरण से संबंध रखता है, पर इसके ऐतिहासिक अध्ययन के लिये कई भापाओं और साहित्यों का विशेष अभ्यास आवश्यक है। इसी से भाषा-विज्ञान का यह अंग अधिक उन्नत नहीं हो सका। अर्थ-विचार

  • पहले संस्करण में ध्वनि के स्थान पर नाद और अर्थ के स्थान पर भाव

का प्रयोग हुआ था, पर अब हम ध्वनि और अर्थ का प्रयोग करेंगे।