पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१८

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विषय प्रवेश देता है। जिस प्रकार शब्दों के भिन्न भिन्न रूपों और अथों पर यह शास्त्र 'विचार करता है, उसी प्रकार भाषा के उद्भव, विकास और हास की भी मनोरम कहानी सुनाने के लिये यह उत्सुक रहता है। कोई भाषा क्यों बॉझ रहती है और कोई क्यों संतानवती होकर प्रजाहित पालन में तत्पर हो जाती है; आदि विपय किस सहृदय को अनुरंजित नहीं करते? अन्यान्य अधिकांश आधुनिक विज्ञानों की भाँति भाषा-विज्ञान का, इस संस्कृत रूप में, प्रारंभ भी पाश्चात्य देशों में ही हुआ है । भाषा-विज्ञान का प्रारम्भ पहले भापाओं का अध्ययन बिलकुल साधारण रूप में ठीक उसी रूप में जिसमें बालकों को आधुनिक विद्यालयों में शिक्षा दी जाती है, हुआ करता था। अध्ययन का यह रूप शुद्ध साहित्यिक था, अर्थात् इस प्रकार का अध्ययन किसी भाषा के केवल साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए होता था । किसी भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उस भाषा के व्याकरण का अध्ययन करना आवश्यक होता है। अतएव किसी भाषा के अध्ययन के अंतर्गत उस भापा के व्याकरण का अध्ययन भी आपसे आप पा जाता है। अनेक विद्वान ऐसे भी होते थे जिन्हें केवल एक ही भापा के अध्ययन से संतोप नहीं होता था और जो भाषाओं के पूर्ण पंडित होकर उन सबके साहित्य और व्याकरणों का विवेचनात्मक अनुशीलन करते थे। जव यूरोपीय लोगों ने संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रारम्भ किया, तब उन्हें संस्कृत के व्याकरण में कुछ नये और विशिष्ट नियम मिले । संस्कृत भाषा के अनेक शब्दों और व्याकरण के अनेक नियमों ने उन लोगों का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया कि संस्कृत का लैटिन तथा उसकी वंशज अनेक दूसरी भाषाओं के साथ कई बातों में साम्य है। इसके अतिरिक्त आरंभ में ऐसे विद्वानों ने यह भी देखा कि बहुत पास के दो चार प्रदेशों की भाषाओं की जिस प्रकार शब्दों और व्याकरण के नियमों आदि में बहुत अधिक समानता होती है, उसी प्रकार, पर उससे कुछ कम अंशों में, दूर दूर के प्रदेशों की