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उपयुक्त पाया। उनका चित्त अत्यंत प्रसन्न हुआ। वहाँ वे घोर तपश्या करने का संकल्प करके रहने लगे। उन्होंने चांद्रायणादिकृच्छ व्रतों को ग्रहण किया और अपने शरीर को व्रता सेअत्यंत कृप कर उष्ण काल में पंचामितपन और शीतकाल में नग्नरहकर शीतोष्ण सहन इत्यादि परम दुष्कर तप करते हुएभैक्ष्यचा का भी परित्याग कर दिया, और वे मिर्च, तंडुल वातिल आदि पर, जो उन्हें विना माँगे वहीं मिल जाते थे, रहनेलगे। जाड़े के दिनों में वे अपने श्वास प्रश्वास का निरोध करप्राणों को इतना पीड़ित करते थे कि उनके शरीर से पसीने कीधारा बहने लगती थी। उन्होंने जब अपने नासारंधू और मुख-विवर को बंद कर प्राणों की गति का निरोध किया और जव प्राणों के निकलने के प्रधान मार्ग बंद हो गए, तब उन्होंने कानों के मार्ग सेनिकलने की चेष्टा की। इस प्रकार जव वायु के प्रपीड़न से उनकेकानों में तुमुल शब्द होने लगे, तब उन्होंने अपने कानों को भी बंदकर लिया। उन्होंने प्राणवायु को बलपूर्वक ग्रहण कर ब्रह्मांड मेंरोका और उसकेगतिनिरोध से स्फाणक नामक ध्यान की भूमि में प्रवेश किया। इस प्रकार जाड़े, गरमी, वर्षा आदि ऋतुओंमेंनम, निराहार और अपरिच्छद रहकर छः वर्ष तक उन्होंने घोरससित यिस्तर में लिखा है कि बक्षगुप्ता,प्रिया, सुप्रिया, विणवसेना;अति झुककमला, मुंदरी, लयिरिलका, गरितिक्षा और शुभाता नाम कीकन्वार गौतम को कभी फमो मिर्ष, घायल और तिल प्रादि दें वादीबों और वे उन्हीं.को साकर तप करते थे।