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भूषण उतारे और साधारण दो एक वस्त्र पहन शेष वस्त्राभूषण तथा कंठक को अपने दास छंदक को सौंप उससे कहा-"छंदक! अब तुम इन वस्त्रों और आभूषणों को तथा कंठक को लेकर कपिलवस्तु को लौट जाओ। माता पिता को मेरा सानुनय प्रणाम कहना और उनसे कह देना कि * "आप मेरे ग्रह-त्याग करने की कुछ चिंता न कीजिए; मैं बुद्धत्व लाभ कर फिर कपिलवस्तु में श्रा कर आपके चरणों के दर्शन करूँगा। उस समय आपका चित्त मेरे धर्मोपदेश को सुन शांत होगा।" छंदक कुमार की यह बातें सुन रोने लगा लगा। उसने कहा-" कुमार मैं आपको कदापि नहीं छोड़ सकता। आप मुझे जो चाहिए कीजिए, पर कपिलवस्तु जाने को न कहिए। मैं आपके विना कपिलवस्तु जाकर क्या करूंगा। यदि मैं आपकी आज्ञा मान कपिलवस्तु को लौट भी जाऊँ तो भी वहाँ लोग मुझे जीता न छोड़ेंगे। वे लोग मुझ पर आपके निकलाने का कलंक लगावेंगे। आप कृपाकर मुझे भी अपने साथ लेते चलिए।" कुमार ने छंदक को बहुत कुछ सममा वुमाकर वस्त्राभूषण और घोड़े के साथ कपिलवस्तु को लौटाया और स्वयं . अपने खड्ग से अपनी शिखा काट डाली और आगे की राह ली।

  • छन्दोक गृहीत्या कपिलपुरं प्रयाहि

मातापितृणां मम घचनेन पृच्छ । गतः कुमारो न च पुनः गोचयेया बुद्धत्व बोधिपुनरहमागमिष्ये। धर्म श्रुणित्वा भविष्यव शांतचित्तः ।