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( ५८ ) का समय आ गया । तुम शीघ्र अश्व तैयार कर लें आओं। मैं अभी बाहर जाऊँगा। समय अच्छा है। इस ममय जाने से मेरा सव काम सिद्ध होगा और अवश्य मुझे सब सिद्धियाँ प्राप्त होंगी"। कुमार के इस कुसमयं गृहत्याग करने पर छंदक अत्यंत विस्मित हुआ और हाथ जोड़कर बोला-" देव ! आप क्यों गृहत्याग करते हैं ? आप इस राज-संपत्ति की ओर देखिए । जिस ऐश्वर्या की प्राप्ति के लिये ऋपिगण बड़े बड़े कठिन तप करते हैं, वह आपको स्वभाव से ही प्राप्त है । आप महारानी यशोधरा की ओर देखें । उनकी यौवनावस्था और रूप-लावण्य पर ध्यान दें। आप अपने उस पुत्र का मुख देखें जो अभी उत्पन्न हुआ है और आपका एक मात्र उत्तराधिकारी है। भगवन् ! आप राजकुमार हैं। आपको किस वातं की कमी है जो आप संसार से विरक्त होकर संन्यास ग्रहण करने पर तुले हुए हैं ? जिंस भोग-ऐश्वर्य के लिये बड़े बड़े ऋषि मुनि लालसा करते हैं, वह आपको सहज में ही भाग्यवश प्राप्त है । हे महाभाग ! आपकी अभी अवस्था ही क्या है। श्राप सुखपूर्वक इस देवदत्त ऐश्वर्य का भोग कीजिए।" .. छंदक की यह प्रार्थना सुन सिद्धार्थकुमार ने कहा- अपरिमितानंतकल्पा मया छंदक, . भुक्ता कामानिमां रूपाश्च शब्दाश्च ।। . . गंधारसास्पर्शता नानाविघा . दिव्येयो मानुषा नैव तृप्तिरभूत ॥