यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ५० ) कापायवस्नवसनो सुप्रशांतचारी पात्रं गृहीत्व न च उद्धत ओनतो वा। . हे सारथी ! यह शांत प्रशांतचित्त कौन पुरुष है ? इसको दोनों आँखें स्थिर हैं। यह कापाय वस्त्र धारण किए, भिक्षापात्र लिए शांत भाव से उद्धत और न अवनत होकर विचरता फिरता है। कुमार की यह बात सुनकर सारथी ने उत्तर दिया- एपो हि देव पुरुपो इति भिक्षुनामा अपदाय कामरतयः सुविनीतचारी। प्रव्रज्यप्राप्त सममात्मन एपमानो संरागद्वपविगतो तिष्ठति पिंडचा ।। हे देव ! यह भिक्षु है । इसने काम और रति को गग, विनीत आचार ग्रहण किथा है। संन्यास ग्रहण कर यह आत्मा की शांति चाहता हुआ राग और द्वेप परित्याग कर भिक्षाचरण कर जीवन व्यतीत कर रहा है। सिद्धार्थ कुमार सारथी का यह उत्तर सुन बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें एक ऐसे पुरुप का परिचय मिला जिसने संसार के विषय- वासना से विरक्त हो अपना जीवन सच्चे सुख की प्राप्ति में लगा रक्खा था। कुमार उसकी प्रशांत आकृति देख मुग्ध हो गए । उन्हें ज्ञात हो गया कि संन्यास आश्रम ही एक ऐसा आश्रम है जिसे ग्रहण कर मनुष्य 'सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है। उन्होंने सारथी से कहा-