यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चस्कंध होने फिर भी जरा, स अनुबद्ध है। (४९ ) जो यह सब जानता हुआ.रति-प्रसंग में निरंत होता है। यदि संसार में जरा, व्याधि और मृत्यु न भी होती तो भी संसार पंचस्कंध होने से ही दुःखों का आगार था। फिर भी जरा, व्याधि और मृत्यु से यह नित्य अनुबद्ध है। अतः हे सारथी ! रथ फिरा।मैं इनसे वचने के उपाय का चिंतन करूँगा। . . . . . ___ सारथी ने रथ लौटाया और कुमार रथ से उतरकर प्रासाद में गए और कई दिनों तक एकांत में बैठे यह विचारते रहे कि वह कौन सा उपाय है जिसका अवलंबन कर मनुष्य जरा, व्याधि और मृत्यु से अत्यंत निवृत्ति प्राप्त कर सकता है। ___ जब इस प्रकार चिंतन करने से कुमार को कोई उपाय न सूमा, तब घवराकर उन्होंने नगर के बाहर जाकर आराम में जी बहलाने का विचार किया और सारथी को रथ लाने की आज्ञा दी। सारथी रथ लेकर प्रासाद के द्वार पर उपस्थित हुआ और कुमार चौथी वार नगर के उत्तर द्वार के उद्यान में जाने के लिये प्रासाद से निकलकर रथ पर सवार हुए । सारथी ने घोड़े की वाग ली और रथ नगर के राजमार्ग से होकर . उत्तर द्वार की ओर चला । ज्यों ही रथ उत्तर के द्वार से होकर निकला, कुमार की दृष्टि एक संन्यासी पर पड़ी जो कापाय वस्त्र धारण किए हाथ में कमंडल लिए शांतचित्त बैठा था। उस संन्यासी को देखकर कुमार ने सारथी से कहा- .. ... ' किं सारथे पुरुष शांत प्रशांतचित्तो नोस्तिप्तचक्षु बजते युगमात्र दी। वु०४