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मन में कहा कि नहीं, संसार में ऐसा कोई औपंधं नहीं है जो व्याधि को जड़मूल से खो सके। वे अपने सारथी से घोले- आरोग्यता च भवते यथ स्वप्नक्रीड़ा व्याधियं च इम ईदृश घोररूपम्। को नाम विज्ञपुरुषो इम दृष्ट्ववस्था . क्रीडारतिं च जनयेत्सुभसृज्ञिता था। . हे सारथी ! यदि आरोग्यता स्वप्न के खेल के समान है और व्याधि के ऐसा घोर भय इसके पीछे लगा है, तो फिर कौन बुद्धि- 'मान् इस अवस्था को देखता हुआ क्रीड़ा में निरत होगा और संसार को शुभ कहने का साहस करेगा। . ___ यह कह सिद्धार्थ ने सारथी को रंथ लौटाने की आज्ञा दी और वे उद्यान में सैर करने के लिये न गए। वे अपने प्रासाद को वापस आए और बहुत दिनों तक एकांत में बैठे इस विचार में मग्न रहे कि व्याधि से बचने का कौन सा अनुपम उपाय है जिससे प्राणी 'व्याधि से अत्यंत निवृत्ति प्राप्त कर सकता है। . ." 'इस घटना के थोड़े ही दिन पीछे सिद्धार्थ कुमार तीसरी बार उद्यान में जाकर चित्त बहलाने के विचार से अपने रथ पर सवारहो नगर से होते हुए उसके पश्चिम द्वार से निकले । दैवयोग से वहाँ उनके उदबोधन के लिये तीसरा दृश्य उपस्थित था। किसी ग्रहस्य के यहाँ उसका कोई संबंधी मर गया था और सारे कुटुम्ब के लोग 'उसके शव को अरंथी पर लिए विलाप करते जा रहे थे । 'कुमार ने "आज तक किसी पुरुष को मरते नहीं देखा था। उनका ध्यान