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तीन दिन बाद विश्वमोहत लौटे। जाने से पहले उनमें और सोना में जो कुछ बातचीत हुई थी, वे उसे प्राय: भूल से गए थे। सोना के लिए एक अच्छी-सी साड़ी, स्‍लीपर और कुछ हेयर क्लिप लिए हुए ये घर आए, किंतु सामने ही चबूतरे पर उन्हें फैजू बैठा हुआ मिला। विश्वमोहन उसे देखते ही तिलमिला उठे। सारी बातें ज्यों की त्यों ताजा हो गईं। चेहरा फिर गंभीर हो गया। घर आकर वे सोना से एक बात भी न कर पाए। माँ से एक दो बातें कर बिना भोजन किए ही ऑफिस चले गए। सोना से यह उपेक्षा सही न गई। पिछले तीन दिनों से वह खिड़की-दरवाज़े के पास भी न गई थी और उसने यह निश्चय कर लिया था कि अब वह कभी खिड़की दरवाज़ों के पास नहीं जाएगी। विश्वमोहन के व्यवहार ने उसे अधिक खिन्‍न कर दिया। अपने जीवन को समाप्त करने का उसे और कोई साधन न मिला। आँगन में लगे धतूरे के पेड़ से उसने दो-तीन फल तोड़ लिए और उन्हें पीसकर पी गई। कुछ ही क्षण बाद सोना के हाथ-पैर अकड़ने लगे। उसकी ज़बान ऐंठ गई और चेहरा काला पड़ गया। वह देख रही थी, किंतु बोल नहीं सकती थी। इसी समय तिवारी जी सोना को विदा करवाने आ पहुँचे। सोना पिता को देखकर बहुत रोई। देखते-ही-देखते सोना के प्राण-पखेरु उड़ गए। सोना सदा के लिए शांति की नींद सो गई। अपवाद की विषैली वायु उसे छू भी न सकती थी। घर भर में कोहराम मच गया। शाम छह बजे विश्वमोहन जी ऑफिस से लौटे। घर में रोने की आवाज़ सुनकर उनका हृदय किसी अज्ञात आशंका से काँप उठा। घर आकर देखा कि तिवारी जी कन्या की लाश को गोद में लेकर दहाड़ें मारकर रो रहे थे। इस बीच तिवारी जी कई बार कन्या को लेने आ चुके थे, किंतु विश्वमोहन ने विदा नहीं किया था। विश्वमोहन व तिवारी में कोई खास बातचीत न हुई। अंतिम संस्कार के बाद जब विश्वमोहन लौटे तो मेज पर उन्हें सोना का पत्र प्राप्त हुआ।

"मेरे देवता! मैं मर रही हूँ। मरनेवाला झूठ नहीं बोला करता। आज तो अंतिम बार विश्वास कर लेना, मैं निर्दोष थी। मुझे लगता है या तो यह दुनिया मेरे लायक नहीं, या मैं इस दुनिया के लायक नहीं। इस छल-कपट से परिपूर्ण संसार में मुझे भेजकर विधाता ने उचित नहीं किया। आप मेरी एक कठिनाई नहीं समझ सके। एक वातावरण से दूसरे वातावरण में पहुँचकर मैं अपने को शीघ्र ही अनुकूल नहीं बना पाई। अपने मरने का मुझे कोई अफ़सोस नहीं है, दुख है तो केवल इस बात का कि मैं आपको सुखी न कर सकी।"

—अभागिनी सोना