पृष्ठ:बाल-शब्दसागर.pdf/१६३

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कहा १५५ कथरि कहा -संज्ञा पुं० कथन । क्रि० वि० किस प्रकार | कहाना- क्रि० स० दे० " कहलाना" | कहानी - संज्ञा स्त्री० कथा | कहार - संज्ञा पुं० एक जाति जो पानी भरने और डोली उठाने का काम करती है । कहावत - संज्ञा स्त्री० मसल । कहा- सुना-संज्ञा पुं० भूल चूक । कहा-सुनी - संज्ञा स्त्री० वाद-विवाद | कहिया - क्रि० वि० किस दिन । कहीं - क्रि० वि० १. किसी निश्चित स्थान में । २. बहुत बढ़कर । कहुँ -- क्रि० वि० दे० "कहीँ" । कहूँ - क्रि० वि० दे० "कहीं" । काँइया - वि० चालाक । कोई + अव्य० क्यों । सर्व० क्या । काँकर-संज्ञा पुं० दे० " कंकड़" । काँकरी - संज्ञा स्त्री० छोटा कंकड़ । 'कांक्षनीय - वि० इच्छा करने योग्य । कांक्षा-संज्ञा स्त्री० [वि० कांक्षित ] इच्छा । .कांक्षी - वि० [स्त्री० कांक्षिणी ] चाहने - वाला । कांख - संज्ञा स्त्री० बग़ल | कखना- क्रि० ६० अ० १. श्रम या पीड़ा - आदि शब्द मुँह से निका बना। २. मल या मूत्र को निकाल- ने के लिये पेट की वायु को दबाना । कांगड़ा संज्ञा पुं० पंजाब प्रांत का एक पहाड़ी प्रदेश | कांगड़ी - संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की छोटी अँगीठी जिसे जाड़े में कश्मीरी लोग गले में लटकाए रहते हैं । काँच -संज्ञा स्त्री० लॉंग | संज्ञा पुं० शीशा । कांचन -संज्ञा पुं० [वि० कांचनीय ] १. सोना । २. धतूरा । कांचनचंगा - संज्ञा पुं० हिमालय की एक चोटी । कचिली-संज्ञा केंचुली । स्त्री० साँप की कथा - वि० दे० "कच्चा”। काँजी - संज्ञा स्त्री० मट्ठो या दही का पानी | छाछ । कॉट-संश पुं० दे० "कोटा" । काँटा - संज्ञा पुं० [वि० कँटीला ] १. कंटक । २. लोहे की झुकी हुई कु- ड़ियों का गुच्छा जिससे कुएँ में गिरे चरतन निकालते हैं । ३. तराज की siड़ी पर वह सूई जिससे दोनों पलड़ों के बराबर होने की सूचना मिलती है । ४. पंजे के श्राकार का, धातु का बना हुआ, एक औज़ार जिससे अँगरेज़ लोग खाना खाते हैं । काँटी - संज्ञा स्त्री० कील | कांड-संज्ञा पुं० १. पार । २. शाखा । काँड़ना+ - क्रि० स० १. रौंदना । २. कूटना । ३. खूब मारना । कांड़ी-संज्ञा स्त्री० लकड़ी का बड़ा डंडा । कांत संज्ञा पुं० पति । कांता - संश स्त्री० १. प्रिया । २. पत्नी । कांतासक्ति - संज्ञा स्त्री० भक्ति का एक भेद जिसमें भक्त ईश्वर को अपना पति मानकर पक्षी भाव से उसकी भक्ति करता है। माधुर्य भाव । कांति-संज्ञा स्त्री० १. दीप्ति । २. सौंदय । कथरि -संज्ञा स्त्री० दे० "कधरी" |