पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/११२

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बाहुबल और वाक्यबल ।
 

लोग यूरोपमें सोशियालिस्ट, कम्युनिस्ट आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं । स्वानुव- र्तिताके साथ समाजका जो विरोध है, उसे कम करनेके लिए जान स्टुअर्ट मिल " Liberty " (स्वाधीनता) नामका ग्रन्थ लिख गये हैं। बहुत लोग इस ग्रन्थको देवप्रसादसे प्राप्त वाक्यके समान मानते हैं । अनिवार्यका निवारण असंभव है। किन्तु अनिवार्य दुःखकी भी मात्रा कम की जा सकती है। सांघातिक रोगकी भी चिकित्सा है—उसकी यन्त्रणा घटाई जा सकती है। इस कारण जो लोग सामाजिक दुःख दूर करनेकी चेष्टामें लगे हैं, उनके परिश्रमको वृथा समझनेका कोई कारण नहीं है।

नित्य और अपरिहार्य सामाजिक दुःखोंका उच्छेद असंभव है। किन्तु अन्य सामाजिक दुःखोंका मूलोच्छेद संभव और मनुष्यके द्वारा साध्य है। उन्हीं दुःखोंको दूर करने में मनुष्य-समाज सदा व्यस्त रहता है। मनुष्यका इति- हास उसी व्यस्तताका इतिहास है।

कहा जा चुका है कि समाजके सब नित्य दुःख समाजकी स्थापनाके ही अपरिहार्य फल हैं—समाजकी सृष्टिसे ही वे उत्पन्न हुए हैं। अब प्रश्न यह है कि अन्य सामाजिक दुःखोंका कारण क्या है ? वे समाजका अपरिहार्य फल न होनेपर भी क्यों होते हैं ? उनके निवारणके लिए इस प्रश्नकी मीमांसा होना बहुत आवश्यक है।

इस प्रकारके दुःखोंकी सृष्टि सामाजिक अत्याचारसे होती है। जान पड़ता है, पहले उदाहरणके तौरपर अत्याचारके बारेमें कह देना ठीक होगा, नहीं तो पाठक कहेंगे कि समाजके ऊपर अत्याचार किसका और कैसा? शक्तिके अविहित प्रयोगको अत्याचार कहते हैं। देखो, माध्याकर्षण आदि जो नैसर्गिक शक्तियाँ हैं वे एक ही नियम पर चलती हैं—उसमें कभी कमी-बेशी नहीं होती । वह नियम विधिबद्ध और अनुलंघनीय है। किन्तु जो शक्तियाँ मनुष्यके हाथमें हैं उनके नियमों में ऐसी स्थिरता नहीं है। जो शक्ति मनुष्यके हाथमें है उसका प्रयोग विहित भी हो सकता है और अविहित भी हो सकता है। जितनी शक्तिके प्रयोगसे उद्देश्य सिद्ध हो और किसीका कुछ अनिष्ट न हो, वही विहित प्रयोग है। उससे अधिक अविहित प्रयोग है।

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* यह हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकरका पहला ग्रन्थ है। अनुवादक—आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी । मूल्य दो रुपया ।

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