द्रविड़जातीय भारतवासियों की म० की प्रा. १२९
का सर्वथा ही अभाव था ? नहीं, यात ऐसी नहीं । आसाम
से लेकर यलोचिस्तान तक और सिन्ध तथा मध्यभारत से
लेकर ठेठ दक्षिण तक पत्थर, लोहे और ताँबे के सैकड़ों
शन और औज़ार मिले हैं। मिट्टी के बर्तन, मनके, चूढ़ियाँ,
शंख और कन्दराभों में सिंधे हुए रङ्गीन चित्र तक प्राप्त
हुए हैं। इन आविष्कारों से यह बात सिध्द होती है कि
आर्यों के आगमन के पहले भी यहां ऐसे लोग रहते थे
जो किसी हद तक सभ्य थे। इसके सिवा एक आविष्कार
और भी बड़े महत्त्व का हुआ है और उसे हुए बीस बाईस
वर्ष हो गये। दक्षिण के तिनवल्ली जिले में एक जगह
आदित्तनल्लूर नाम की है। वहाँ एक समाधि स्थल या
कचरिस्तान मिला है। उसका नाम है-~पाण्डकुली अर्थात्
पाण्टयों की समाधि | उसके भीतर ब्रंज नामक धातु के
बर्तन, उसी धातु की बनी हुई पशु-मृतियों, लोहे के शंख,
मनुप्या की पूरी ठठरियाँ, उनके पहनने के लिए रक्खे गये
वस्त्र तथा साद्य पदार्थ तक मिले है। ठीक इसी तरह की
समाधियों सीट, साइप्रेस, एशिया माइनर और बाबूल में
मी मिली है । उन समाधियों के भीतर भी प्रायः यही
पम्नः उसी तरह रक्खी हुई प्रात हुई है जो भादिन.
नल्दर में प्राप्त हुई है। इससे यह बात निर्भ्रान्त सी
मालूम होती है कि जिस जाति के लोगों की पावर द्रीट
और बाबूल आदि में मिली है उसी जाति के लोगों की